जनवादी लेखक संघ का सातवां राष्ट्रीय सम्मेलन 2 नवंबर 2007 को दोपहर बाद 3.00 बजे डिगुवाडीह, धनबाद के सेंट्रल इंस्टीट्यूट आफ फ्यूल एंड माइनिंग रिसर्च के सभागार में जिसे `ओमप्रकाश ग्रेवाल सभागार´ का नाम दिया गया था `इप्टा´ के क्रांतिकारी गीतों से शुरू हुआ, जलेस महासचिव चंचल चौहान ने केंद्र की ओर से प्रतिनिधियों और सभा में मौजूद सभी लेखकों का स्वागत करते हुए अध्यक्ष मंडल के सदस्यों, शिवकुमार मिश्र, विजेंद्रनारायणसिंह, सरला माहेश्वरी, इब्बार रब्बी और एस के श्रीवास्तव को मंच पर आमंत्रित किया और जलेस केंद्र के सभी पदाधिकारियों को संचालन समिति के सदस्य के नाते मंच पर अपना स्थान ग्रहण करने के लिए बुलाया। सबसे पहले सातवें सम्मेलन के लिए धनबाद में गठित स्वागत-समिति के अध्यक्ष एस. के. श्रीवास्तव ने अपना स्वागत भाषण पढ़ा और उसके बाद प्रभात पटनायक ने अपना उद्घाटन भाषण दिया । वे अंग्रेजी में बोले, चूंकि उनके भाषण का हिंदी अनुवाद पहले ही सभी श्रोताओं को दे दिया गया था, इसलिए भाषा का कोई व्यवधान नहीं हुआ । उन्होंने अपने भाषण में आज के समय में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की विशेषताओं और वर्चस्व की उसकी मुहिम का विस्तार से उल्लेख किया और विश्वपूंजीवाद के बदले हुए चरित्र पर रोशनी डाली । उन्होंने मौजूदा दौर में विश्वपूंजीवाद की सात विशेषताओं का विस्तार से उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि ` इसकी पहली विेशेषता अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी जैसी एक नई इकाई का उदय है जो किसी विेशेष राष्ट्र पर आधारित या किसी राष्ट्र-राज्य से सहायता प्राप्त या किसी विशेष राष्ट्रीय पूंजीवादी रणनीति से जुड़ी हुई नहीं है। दूसरी बात उन्होंने यह बतायी कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के इस उभार ने पूंजीवादी राष्ट्रीय सत्ता की प्रकृति का रूपांतरण किया है। पहले पूंजीवादी व्यवस्था खुद को एक कल्याण राज्य की तरह पेश करती थी, अब वह खुले रूप में वित्तीय पूंजी के हित में काम करती है । तीसरी बात उन्होंने यह बतायी कि अब केन्स जैसे अर्थशास्त्री की नीतियों को दफना दिया गया है और पूंजीवादी राज्य सार्वजनिक हित और कल्याण कार्य पर खर्च में लगातार कटौती कर रहे हैं, इससे गरीबों पर भारी बोझ और अमीरों को भारी मुनाफा मिल रहा है । चौथी विशेषता यह बतायी कि वित्तीय पूंजी ने किसानों और छोटे उत्पादकों को बदहाली की ओर धकेल दिया है। पांचवी बात इसी से जुड़ी हुई है कि इससे किसानों की जमीनें छिन रही हैं । छठी बात यह कही कि अब पूंजीवादी संचय की प्रकृति बदल गयी है, पहले विस्तार से संचय होता था, अब जबरन कब्जा करके पूंजी का संचय होता है । उन्होंने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के मौजूदा दौर की विशेषता यह है कि “कब्जे के जरिए स्ंाचय´´ की सापेक्षतया भूमिका काफी बढ़ चुकी है। राजकीय क्षेत्र की परिसम्पत्तियों का निजीकरण और “कौिड़यों के मोल´´ उनका अधिग्रहण, किसानों का शोषण और उनकी ज़मीनों पर कब्ज़े, छोटे उत्पादकों का विस्थापन और उनके अब तक के कार्यक्षेत्र पर कब्ज़ा तथा बड़ी पूंजी के हाथों छोटी पूंजी का विस्थापन- यह ऐसा परिदृश्य है जिसमें ये प्रवृत्तियां आज के दौर में बहुत अधिक बढ़ रही हैं । और सातवीं विशेषता का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी दुनिया को फिर से उपनिवेश बनाने का एक सुव्यवस्थित प्रयास कर रही है । कच्चे मालों और खासकर तेल पर कब्जा करने की हवस युद्धों को जन्म दे रही है ।
उसके बाद उन्होंने ऐतिहासिक दृष्टि से खासकर सोवियत संघ के विघटन के बाद की परिस्थितियों से जन्मे हालात में विश्वपूंजीवाद के ऊंचे उठने के कारणों की चर्चा की । उन्होंने उन मुस्लिमबहुल देशों की हालत का जिक्र किया जिनमें कभी कम्युंनिस्ट आंदोलन बहुत आगे बढ़ा हुआ था, मगर साम्राज्यवाद की कुचालों से यानी धार्मिक उन्माद पैदा करके तथा तख्तापलट के माध्यम से उन आंदोलनों को कुचल दिया गया और अब इतिहास की विडंबना यह है कि उन्हीं धार्मिक उन्मादियों के कुछ हिस्से आज साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े नजर आते हैं जिनके आतंक का हौवा खड़ा करके उन देशों पर हमलों को वैधता प्रदान की जा रही है । ऐसे तत्वों से साम्राज्यवाद को फायदा ही हो रहा है । उन्होंने कहा कि दरवाजे पर खड़े बर्बरों´ की तस्वीर से पैदा हुई असुरक्षा कारपोरेट अमीरों के हाथ में कहीं बहुत अधिक शक्तिशाली अस्त्र है ´´ उन्होंने इस प्रक्रिया से साम्राज्यवाद को होने वाले फायदों को भी गिनाया । उन्होंने यह आशंका जाहिर की कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की मुहिम को कहीं दुनिया के प्रगतिशील और वामपंथी यहां तक कि कम्युनिस्टों का भी मौन समर्थन न मिल जाये । “वित्तीय पूंजी की विचारधारा की असल जीत यह है कि जो लोग उसके वास्तविक चरित्र को जानने का दावा करते हैं उनको भी वह अपने वर्चस्व के दायरे में लेकर अपने को स्वीकार कराती है और आधुनिकता के नाम पर उसके कब्जां का अनुमोदन कराती है । अंत में उन्होंने कहा कि आतंकवाद को निमूल करने के लिए लुटेरे साम्राज्यवाद के खिलाफ तमाम प्रगतिशील और जनवादी और वामपंथी ताकतों को आगे आना होगा और उसे निमूल करना होगा जो आतंकवाद को जन्म देता है। उन्हीं के शब्दों में, लुटेरे साम्राज्यवाद के विरोध में एक वैकल्पिक जन-प्रतिरोध का उभार ही `आतंकवादी चुनौती´ के अंत का प्रस्थानबिंदु होगा । शिवकुमार मिश्र ने अपने अध्यक्षीय भाषण में बीसवीं सदी के मध्य से आये सामाजिक परिवर्तनों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि रचना हमेशा चुनौतियों के बीच ही पैदा हुई, आज की चुनौतियों से भी वह रची जा रही है । आगे भी रची जायेगी ।
रात को कविसम्मेलन और मुशायरा हुआ जिसमें देश के तमाम राज्यों से आये कवियों और शायरों ने शिरकत की । 3 नवंबर 2007 को सुबह 10 बजे से वैचारिक वर्चस्व और सांस्कृतिक प्रतिरोध की दिशाएं विषय पर सेमिनार हुआ । अध्यक्षमंडल में शिवकुमार मिश्र, ज्योत्सना, मनमोहन पाठक, नीरजसिंह, प्रहलादचंद्र दास, गिरीशचद्र श्रीवास्तव थे । संचालन करते हुए जलेस महासचिव मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह ने विषय के तमाम आयामों पर प्रकाश डाला और उसके बाद चर्चा की शुरुआत संजीवकुमार ने की । उसके बाद रविभूषण ने अपने विचार रखे । विष्णु नागर और विजेंद्र के लेख पढ़े गये । चर्चा में विजेंद्रनारायण सिंह, मनमोहन पाठक, गौतम सान्याल, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, प्रेम दुबे, नीरजसिंह, राजीव पराशर, कृष्णकुमार, जितेंद्रसिंंह सोढ़ी आदि ने हिस्सा लिया । भोजनोपरांत सेमिनार सत्र फिर शुरू हुआ जिसकी अध्यक्षता अरुण माहेश्वरी, रामप्रकाश त्रिपाठी, गोपालप्रसाद, रेखा अवस्थी, नीरजसिंह और राधेश्याम पाठक ने की । इस सत्र में मुख्य रूप से सांस्कृतिक साहिित्यक पक्ष पर चर्चा हुई । चर्चा की शुरूआत चंचल चौहान ने की, उन्होंने साहिित्यक वैचारिक चिंतन में `आधुनिकतावाद´ को जहां पूंजीवाद के उभार की विचारधारा बताया वहीं `उत्तरआधुनिकतावाद´ के पीछे वित्तीय पूंजी की विचारधारा को रेखांकित किया । जवरीमल्ल पारख ने मीडिया में इन विचारों की घुसपैठ को स्पष्ट किया। बहस में व्यास मिश्र, सुरेश श्रीवास्तव, मनोजकुमार सिंह, परवेज़, रामप्रकाश त्रिपाठी, रेखा अवस्थी आदि ने हिस्सा लिया ।
समापन भाषण प्रसिद्ध पत्रकार पी साइनाथ ने दिया । उन्होंने लेखकों व पत्रकारों से गुरिल्ला पत्रकारिता, गुरिल्ला लेखन करने का आन्हान किया । जहां जितना मौका मिले, हमला करना होगा ।´´ पी साईनाथ ने कहा कि लेखकों व पत्रकारों को नये सिरे से सोचना होगा कि एक पत्रकार व एक लेखक के रूप हमारा क्या रोल है उन्होंने कहा कि कॉरपोरेट पावर में मीडिया सेंट्रल पावर है। ये फ्रंटलाइन ट्रूप्स हैं, इस कारण जनवादी लेखकों व पत्रकारों की जिम्मेवारी और बढ़ जाती है ।
परमाणु करार को लेकर देश के अख़बारों व चैनलों में कितना बवाल हुआ, पर अब तक किसी चैनल या राष्ट्रीय अखबार ने जनता के सामने परमाणु करार से संबंधित डिटेल आम जनता के सामने नहीं रखे । विरोध सिर्फ वामपंथी कर रहे हैं, विरोध करने वालों को विकास का दुश्मन बताया गया, पर किसी ने यह नहीं बताया कि भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर व राजीव गांधी रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक पत्र लिखकर इस करार का विरोध कर रहे हैं । तर्क दिया गया कि अमेरिका के सामरिक सहयोगी बन जाने में फायदे ही फायदे हैं, पर हमें प्रोपगेंडा (अधिप्रचार) का खेल समझना हो तो अमेरिका के साथ परमाणु करार का सटीक नाम कोलीशन ऑफ किलिंग होगा । तर्क है कि इससे भारत न्यूिक्लयर पावर बनेगा । न्यूिक्लयर पावर बनने से अच्छा है भारत मोरल पावर बने । अमेरिका के सामरिक सहयोगियों की हालत पर नज़र दौड़ायें तो हम ऊपर से नीचे तक सिहर जायेंगे । पाकिस्तान को लीजिएण् सबसे बड़ा सामरिक सहयोगी है, मगर आज क्या हालत है । ब्रिटेन को ही लीजिए, कहां गये टोनी ब्लेयर । इराक भी एक समय अमेरिका का सामरिक सहयोगी रहा था, आज तहस-नहस हो रहा है ।
प्रोपगेंडा से लड़ाई लड़नी होगी । 1916 में इसी प्रोपगेंडा का सहारा ग्रेट ब्रिटेन ने ब्रिटेन के लोगों को बरगलाने के लिए लिया था । तुकीZ से हारने के बाद इराक के बगल के शहर कूट पर आक्रमण किया गया, पर इसमें 24 हजार लोग मारे गयेण् इसमें दो तिहाई भारतीय थे । ब्रिटेन हार गया । कूट के लोगों ने जिस तरह उस वक्त एक होकर ग्रेट ब्रिटेन को हराया, हमें साम्राज्यवाद व प्रोपगेंडावाद के खिलाफ इसी तरह एकजुट होना होगा ।
इतिहास गवाह है हमेशा गरीब के बच्चों को अमीर के बच्चों की खुशहाली के लिए मरने को बार्डर पर भेज दिया जाता है हमें ग्लोबल पूंजी से लड़ना पड़ रहा है । इस पूंजी का अपना एक कल्चर (संस्कृति) है इसके खिलाफ लेखकों व पत्रकारों को ही लड़ाई लड़नी है । यह लड़ाई कितनी मुश्किल है सोचिएण् स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में लेखकों के साथ-साथ एक प्रोग्रेसिव मीडिया भी खड़ा था, पर आज लेखक हैं, वह प्रोग्रेसिव मीडिया ग़ायब है । हमें अच्छी पत्रकारिता का मतलब समझना होगा । बदल रही स्थितियों को उसी तरह पकड़ना होगा जैसे अपने समय में गांधी, तिलक व आंबेडकर ने पकड़ा व समझा थाण् आज मीडिया में जो देखा या दिखाया जा रहा है, वह सचमुच का मुददा नहीं है , मुददा बनाया जा रहा है । शिल्पा शेट्टी व क्रिकेट मुद्दा नहीं, मुद्दा असमानता है, निजीकरण है, बड़े-बड़े ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपने दिमाग का भी निजीकरण कर लिया है । बहुत सारी बातें हैं जो सामने नहीं आ पातीं । जैसे वल्र्ड बैंक व भारत सरकार ने अपने डाक्यूमेंट में पानी का दूसरा नाम दिया है, दो नाम हैं रेवेन्यू वाटर और नान रेवेन्यू वाटर । पानी का भी व्यवसायीकरण है ।
पी साईनाथ ने क्षोभ व्यक्त किया कि अकेले झारखंड की ही एक लाख से ज्यादा लड़कियां दिल्ली में घरेलू नौकरों के रूप में काम करती हैं । वे यौन व शारीरिक उत्पीडन की शिकार होती हैं । पूरे देश में असमानता इतनी तेजी से बढ़ रही है कि डिमोक्रेसी खतरे में है । आंबेडकर ने जो संविधान सभा में खतरा जताया था वह साफ नजर आ रहा है । आर्थिक असमानता राजनीतिक जनतंत्र को खतरे में डाल रही हैण् फोब्र्स बेवसाइट का हवाला लें तो हिंदुस्तान में 36 मिलेनियर हैंण् पूरी दुनिया में सबसे अधिक मिलेनियर की संख्या के हिसाब से हमारा रैंक वल्र्ड में चौथा है । हम खुश हो सकते हैं, पर तुरंत हमारा ध्यान ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ओर जाता है यहां हमारा स्थान 94 हैण् हमारे बाद इथोपिया व जिंबाबे है । इथोपिया भी भूख से निपटने को लेकर हमसे ज्यादा चिंतित है, मगर भारत में हाल के वषोंZ में भूखों की संख्या 130 लाख बढ़ गयी है । हम नौ प्रतिशत विकास दर पर खुश हो सकते हैं, पर कैंसर का विकास भी तेज होता है और उससे आदमी मर जाता है ।
हमारे 25-30 शहरों में हर रोज नये रेस्त्ररां खुल रहे हैं, मगर प्रति व्यक्ति को मिलने वाला अनाज घट गया है । यह कितना घटा है इसके लिए हमें 90 ग्राम को 365 दिन और फिर एक अरब की जनसंख्या से गुणा करना होगा । महाराष्ट्र में किसानों की हालत गंभीर है, पर यहां के कृषि मंत्री क्रिकेट मंत्री ज्यादा हैं, उन्हें कृषि की फिक्र नहीं । हमारे देश का वित्त मंत्री सेन्सेक्स मंत्री है । किसानों की आत्महत्या का कारण पूछने कोई नहीं जाता, सेन्सेक्स गिरने पर वित्त मंत्री सारा काम छोड़ कर दलाल स्ट्रीट भागा हुआ जाता है । महाराष्ट्र के विदर्भ में 17 घंटे बिजली नहीं रहती, किसान संकट में हैं, मुंबई में यदि 15 मिनट बिजली गुल हो जाये तो विदर्भ को दो घंटे बिजली मिल सकती है । बिजली का उत्पादन विदर्भ में होता है, मगर मुंबई के लोग विदर्भ के लिए 15 मिनट के लिए त्याग नहीं कर सकते ।
1951 से 2007 तक एक सी ई ओ का वेतन 100 प्रतिशत बढ़ा । औद्योगिक मजदूरों का वेतन 22 प्रतिशत घटा । यह असमानता बढ़ रही है । यह असमानता लेखकों के लिऐ चैलेंज है । मौजूदा समय में देश 40 वषोंZ के बीच का सबसे बड़ा कृषि संकट झेल रहा है । पर मीडिया में यह सब नहीं दिखता । वहां शिल्पा दिखती है, सेन्सेक्स दिखता है। सुनामी हुआ, सेंसेक्स ने उछाल मारी । गुजरात में दंगा हुआ, सेंसेक्स ने उछाल मारी क्योंकि मरम्मत के लिए पैसा आयेगा । लेखक का काम अपने समय की स्टोरी को कहना है। अमानवीयता, अनैतिकता, भूख के खिलाफ लिखने का काम लेखक का है। पीण्साइनाथ के समापन भाषण के बाद विभिन्न राज्यों से आयी मंडलियों की नृत्य और नाट्य प्रस्तुतियां हुईं ।
4 नवंबर को सुबह 9ण्00 बजे से सांगठनिक सत्र शुरू हुआ । सबसे पहले पिछले सम्मेलन से अब तक दिवंगत हुए लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को श्रद्धांजलि पेश करते हुए रामप्रकाश त्रिपाठी ने शोकप्रस्ताव पढ़ा, उसके बाद केंद्र की रिपोर्ट महासचिव चंचल चौहान ने प्रस्तुत की । रिपोर्ट पर बहस में सभी राज्यों से दो दो प्रतिनिधियों ने अपने विचार रखे । बहस का उत्तर मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह ने दिया और चंचल चौहान ने रिपोर्ट पर आये कुछ मान्य सुझावों को समेकित करते हुए सदन के सामने उसे पारित करने का प्रस्ताव रखा । रिपोर्ट पारित होने के बाद दो संविधान संशोधन पारित हुए । सम्मेलन में अमरीकी भारत परमाणु करार के विरोध में, उर्दू की रक्षा और विकास के लिए, लोकभाषाओं और लोकसाहित्य की रक्षा के पक्ष में, 1857 और शहीद भगतसिंह पर आयोजनों के लिए, गुजरात में मुस्लिम नरसंहार के दोषियों को सजा देने की मांग को लेकर, मक़बूल िफ़दा हुसैन पर अघोषित पाबंदी हटाये जाने की मांग को लेकर प्रस्ताव पारित किये गये । उसके बाद संगठन का चुनाव हुआ जिसमें 161 सदस्यों की नयी केंद्रीय परिषद जिसमें कुछ स्थान रिक्त रखे गये गठित की गयी । केंद्रीय परिषद ने 24 सदस्यीय पदाधिकारीमंडल और 35 सदस्यीय कार्यकारिणी का चुनाव किया और एक संरक्षकमंडल मनोनीत किया ।