साथी ज़हीर कुरैशी की असामयिक मृत्यु से जनवादी लेखक संघ शोक-संतप्त है। वे आला दर्जे के ग़ज़लकार थे और जनवादी लेखक संघ की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य तथा मध्यप्रदेश इकाई के उपाध्यक्ष थे।
ऐतिहासिक नगरी चंदेरी के ज़हीर डाक तार विभाग में लंबे समय तक ग्वालियर में पदस्थ रहे। वहीं वे जनवादी लेखक संघ में सक्रिय हुए। ज़िला और राज्य इकाई के ज़िम्मेदार पदों पर रहे। वे सातवें दशक में सृजन सक्रिय हुए। उनके गीत और ग़ज़लों का प्रकाशन हिंदी की सभी पत्रिकाओं में हुआ।
उर्दू में महारत होने के बावजूद उन्होंने हिंदी को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। वे ऐसे विरले हिंदी ग़ज़लकार हैं जिनकी रचनाएं कई विश्वविद्यालयों के स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में शामिल की गयीं।
उनका मूल स्वर सामाजिक समरसता, समाजवाद,और जन एकता का ही रहा। चूंकि ज़हीर ट्रेड यूनियन आंदोलन में भी शामिल रहे इसलिए भी उनकी रचनाएं मज़दूर, किसान, दलित, वंचित और महिलाओं की स्वाभाविक पक्षधर रहीं।
उनकी गद्य और कविता की कई किताबें प्रकाशित और चर्चित रहीं हैं। उनमें प्रमुख हैं :
‘चांदनी का दुख’, ‘भीड़ में सब से अलग’, ‘बोलता है बीज भी’, ‘रास्तों से रास्ते निकले’, ‘पेड़ तन कर भी नहीं टूटा’, ‘एक टुकड़ा धूप’, ‘कुछ भूला कुछ याद रहा’ आदि।
ज़हीर कुरैशी का असमय जाना संगठन, सांप्रदायिक एकता, और जन सरोकार के मज़बूत स्वर का विलुप्त हो जाना है। जनवादी लेखक संघ उन्हें ख़िराजे अक़ीदत पेश करता है।