नयी दिल्ली : 12 मई 2022 : विश्वविद्यालय परिसरों में आलोचनात्मक विवेक पर हमलों की बारंबारता जिस तरह बढ़ी है, वह बेहद चिंताजनक है। रामनवमी और हनुमान जयंती को सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के अवसर की तरह इस्तेमाल करने का सिलसिला अभी बमुश्किल थमा ही था कि परिसरों की शांति भंग की जाने लगी। आरएसएस से जुड़े सैकड़ों संगठन इस काम में मुस्तैदी से जुटे हैं।
5 मई को वड़ोदरा के महाराजा सियाजीराव यूनिवर्सिटी के ललित कला संकाय में, जहां सालाना कला-प्रदर्शनी के लिए कृतियों के चयन का काम चल रहा था, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों ने घुसकर हिंसक हंगामा किया। उनकी शिकायत थी कि प्रदर्शनी में एक आपत्तिजनक कलाकृति प्रदर्शित हो रही है जिसमें हिंदू देवी-देवताओं के कट-आउट्स स्त्रियों के ख़िलाफ़ हुए अपराधों की अख़बारी ख़बरों से बनाये गये हैं। सच्चाई यह है कि उस समय तक उस कलाकृति की तस्वीर सोशल मीडिया पर भले ही साझा की गयी हो, प्रदर्शनी के लिए चयनित भी नहीं हुई थी। इसके बावजूद उनके हंगामे के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक जांच कमेटी गठित कर दी, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर 11 मई को हुई सिंडिकेट की बैठक में उस कृति को बनानेवाले विद्यार्थी कुंदन यादव को विश्वविद्यालय से बरख़ास्त कर दिया गया और संकाय के अनेक शिक्षकों को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया।
7 मई को शारदा यूनिवर्सिटी ने कुछ लोगों की शिकायत पर उस असिस्टेंट प्रोफ़ेसर को निलंबित कर दिया जिसने राजनीतिविज्ञान के स्नातक के प्रश्नपत्र में यह प्रश्न दिया था कि ‘क्या आप फ़ासीवाद/नाज़ीवाद और हिंदू दक्षिणपंथ (हिंदुत्व) के बीच कुछ समानताएं देखते हैं? तर्कसहित विश्लेषण करें।’ यह कोई अजूबा सवाल नहीं है। फ़ासीवाद/नाज़ीवाद और हिंदुत्व के बीच अनेक राजनीतिवैज्ञानिकों ने समानताएं रेखांकित की हैं, जिनसे राजनीतिविज्ञान के किसी विद्यार्थी को परिचित होना ही चाहिए। पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने इस प्रश्न को ‘भारत की समावेशी संस्कृति के ख़िलाफ़’ मानते हुए असिस्टेंट प्रोफ़ेसर श्री वक़स फ़ारूक़ कुट्टी को अविलंब निलंबित कर दिया। दो दिन बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भी इस मामले में अपने मुस्तैदी साबित करने के लिए शारदा यूनिवर्सिटी से ‘एक्शन टेकन रिपोर्ट’ की मांग की और कहा कि राजनीतिविज्ञान के प्रश्नपत्र में पूछा गया यह प्रश्न ‘हमारे देश की भावना और प्रकृति, जो अपनी समावेशिता और एकरूपता के लिए जानी जाती है,’ के ख़िलाफ़ है। शारदा यूनिवर्सिटी और यूजीसी, दोनों ने इस प्रश्न पर जो टिप्पणियां की हैं, वे इस बात का सबूत हैं कि वे हिंदुत्व को, जो स्पष्ट तौर पर एक राजनीतिक विचारधारा है, भारत राष्ट्र का पर्याय मानते हैं और उसके संबंध में किसी तरह के सतर्क विश्लेषण की इजाज़त देना उन्हें मंज़ूर नहीं है।
10 मई को लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर रविकांत चंदन को निशाना बनाया गया। एक यूट्यूब चैनल पर प्रो. रविकांत द्वारा ज्ञानवापी मुद्दे पर की गयी टिप्पणी के ख़िलाफ़ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने परिसर में नारेबाज़ी और तोड़फोड़ की और पहले उनकी कक्षा में पहुंचकर, फिर प्रॉक्टर के दफ़्तर में उनका घेराव करके उनके साथ हिंसा करने का प्रयास किया। परिषद के उन विद्यार्थियों के ख़िलाफ़ नामज़द रिपोर्ट दायर होने के बावजूद अभी तक तत्संबंधी कार्रवाई की कोई ख़बर नहीं है।
ये सभी घटनाएं बेहद निंदनीय हैं। अलग अलग नामों से सक्रिय आरएसएस के अनेक संगठन आलोचनात्मक विवेक को ध्वस्त करके एक ऐसा समाज बनाना चाहते हैं जहां साहित्य, कला और विचार की दुनिया हिंदुत्व के आगे नतमस्तक हो, जहां इतिहास की उनकी दुर्व्याख्याओं को ही मान्य और मानक इतिहास का दर्जा मिले, जहां उनके द्वारा सुझायी गयी परंपरा को ही परंपरा माना जाये और सभी ग़ैर-परंपरागत विचार दंड के भागी हों।
जनवादी लेखक संघ इन कोशिशों की कठोर निंदा करता है और यह विश्वास व्यक्त करता है कि लेखक-कलाकार-विचारक विवेक पर होनेवाले इन हमलों के ख़िलाफ़ दृढ़तापूर्वक खड़े रहेंगे। विश्वविद्यालयों के प्रशासन लगभग सभी उदाहरणों में हिंदुत्ववादियों के आगे झुकते, और कई बार आगे बढ़कर उनका काम पूरा करते नज़र आ रहे हैं। हम इसकी भी भर्त्सना करते हैं और आशा करते हैं कि विश्वविद्यालयों के शिक्षक प्रशासन की इन हरकतों का पुरज़ोर प्रतिकार करेंगे।