नयी दिल्ली : 8 फ़रवरी, 2024 : सवित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के ललित कला केंद्र में परीक्षा के असाइनमेंट के तौर पर मंचित हो रहे नाटक के बीच अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा किये गये हंगामे और तोड़-फोड़ की हालिया घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। 2 फ़रवरी को वहां जब वी मेट शीर्षक से एक नाटक का मंचन हो रहा था, जिसमें एक रामलीला का नेपथ्य दिखाया गया है जहां विभिन्न पात्रों की भूमिका निभानेवाले अभिनेता किसी एक का इंतज़ार कर रहे हैं। इसमें सीता बने हुए अभिनेता को सिगरेट पीते दिखाया गया है। इसी पर आपत्ति करते हुए एबीवीपी के विद्यार्थियों ने भावनाएं आहत होने के नाम पर मंचन को बाधित किया और तोड़फोड़ मचायी जिसके बाद मंचन कर रहे विद्यार्थियों के साथ उनकी हाथापाई हुई। इसके बाद पांच विद्यार्थियों और ललित कला केंद्र के विभागाध्यक्ष के ख़िलाफ़ एबीवीपी और भारतीय जनता युवा मोर्चा ने एफ़आईआर दर्ज कराया जिसके आधार पर इन छह लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया और बाद में ज़मानत पर रिहा किया गया। विश्वविद्यालय के प्रशासन ने भी इस मामले में हंगामा करनेवालों का पक्ष लेते हुए अपने बयान में न सिर्फ़ भावनाएं आहत होने के संबंध में क्षमा-याचना की बल्कि ‘किसी मिथकीय या ऐतिहासिक व्यक्ति की पैरोडी’ को ‘पूरी तरह से ग़लत और प्रतिबंधित’ बताया। कोई आश्चर्य नहीं कि, इंडियन एक्स्प्रेस में छपी ख़बर के मुताबिक़, 6 फ़रवरी को विश्वविद्यालय की प्रबंधन परिषद की बैठक की शुरुआत अनेक सदस्यों द्वारा ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष के साथ हुई। प्रशासन ने घटना की जांच के लिए एक फ़ैक्ट फ़ाइन्डिंग कमेटी गठित कर दी जिसे मार्च के पहले सप्ताह में अपनी रिपोर्ट दाख़िल करनी है।
ललित कला केंद्र के विभागाध्यक्ष, प्रो. प्रवीण दत्तात्रेय भोले, और पांच विद्यार्थियों के ख़िलाफ़ दर्ज एफ़आईआर पर कार्रवाई करते हुए पुणे पुलिस ने जिन धाराओं के तहत उन पर आरोप लगाये हैं, उन्हें देखते हुए बहुत साफ़ है कि मंशा किसी भी तरह से उन्हें फंसाने की है। उन्हें धार्मिक आस्था का अपमान (295 ए), अश्लील गतिविधियां और गाने (294), दंगा-फ़साद (147), अवैधानिक जमावड़े (143) जैसे आरोपों समेत भारतीय न्याय संहिता की और भी कई धाराओं के तहत आरोपी ठहराया गया है। साथ ही, सिगरेट एण्ड अदर टबैको एक्ट, 2003 की कुछ धाराएं भी लगायी गयी हैं। आश्चर्यजनक है कि ये सभी धाराएं एक ऐसे प्रदर्शन के संदर्भ में लगायी गयी हैं जो सार्वजनिक नहीं था और जिसका उद्देश्य विद्यार्थियों का मूल्यांकन था। यह भी आश्चर्यजनक और निंदनीय है कि विश्वविद्यालय प्रशासन इस मामले में बजाय अपनी परीक्षा पद्धति का बचाव करने और यह कहने के, कि प्रदर्शन के संबंध में परीक्षकों की राय का इंतज़ार किया जाना चाहिए, परिसर में घुसकर तोड़फोड़ करनेवाले कार्यकर्त्ताओं की ही भाषा बोल रहा है।
ठीक यही स्थिति 2022 में वडोदरा, गुजरात के सायाजीराव यूनिवर्सिटी में देखी गयी थी जहां ललित कला संकाय में परीक्षा संबंधी मूल्यांकन के लिए लगायी जा रही प्रदर्शनी के शुरू होने से भी पहले एबीवीपी के सदस्य तोड़फोड़ करने पहुंच गये और उसके बाद जिस कलाकृति से उनकी ‘भावनाएं आहत’ हुई थीं, उसे बनानेवाले, प्रथम वर्ष के विद्यार्थी कुंदन यादव को विश्वविद्यालय की सिंडिकेट ने बरख़ास्त कर दिया और उसके शिक्षक, सुपरवाइज़र और संकाय के डीन को ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी किया।
अब प्रशासन के दायरे में यही चलन स्थापित हो चुका है कि हमलावर छुट्टा घूमते हैं और उत्पीड़ित पक्ष पर ही यह मानकर क़ानूनी कार्रवाई की जाती है कि आख़िर उनकी कोई ग़लती तो थी ही जिसके कारण यह हमला हुआ! शासन-प्रशासन के इस रवैये ने भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति के अधिकार को पूरी तरह से बेमानी बना दिया है। जहां तक उक्त घटना का सवाल है, उसमें तो संविधान प्रदत्त इस अधिकार का हवाला देने की भी ज़रूरत नहीं है, क्योंकि यह इम्तिहान का असाइनमेंट था, कोई सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं।
जनवादी लेखक संघ सवित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में हुए इस हमले की और उसके संबंध में प्रशासन और पुलिस के रवैये की निंदा करता है। हम ललित कला संकाय के अध्यक्ष तथा विद्यार्थियों पर लगाये गये आरोपों को वापस लेने और भावनाएं आहत होने के नाम पर हंगामा और तोड़फोड़ करनेवालों पर अविलंब उचित कार्रवाई करने की मांग करते हैं।