नयी दिल्ली :11 मई 2024: भारतीय साहित्य की एक मज़बूत आवाज़ आज हमेशा के लिए शांत हो गयी। कहने के लिए सुरजीत पातर पंजाबी भाषा के कवि, लेखक, अनुवादक और अध्यापक थे लेकिन अपने लेखन से उन्होंने सिर्फ़ पंजाबी साहित्य को नहीं, पूरे भारतीय साहित्य को समृद्ध किया । पातर साहब का आज 79 की उम्र में लुधियाना में दिल का दौरा पढ़ने से निधन हो गया। आपका जन्म 14 जनवरी 1945 को जालंधर के पात्तड़ कलां में हुआ। अपने नाम के साथ ताउम्र उन्होंने अपने गांव का नाम ‘पातर’ जोड़े रखा।
पातर साहब की पहली कविता 1964 में पंजाबी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘प्रीतलड़ी’ में प्रकाशित हुई थी। ‘हवा विच् लिखे हर्फ़’, ‘बिरख अर्ज़ करे’, ‘हनेरे विच् सुलगती वर्णमाला’, ‘लफ़्ज़ां दी दरगाह’ आदि उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। उन्होंने शहीद ऊधम सिंह पर बनी फ़िल्म और दीपा मेहता की ‘हेवेन ऑन अर्थ’ के पंजाबी संस्करण के संवाद भी लिखे तथा गिरीश कर्नाड के नाटक ‘नागमंडल’ और लोर्का की त्रासदियों का, ब्रेख़्त और पाब्लो नेरुदा के साहित्य का भी पंजाबी में अनुवाद किया।
सरस्वती सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार, कुसुमाग्रज लिेटेररी अवार्ड सहित अनेक पुरस्कारों से वे सम्मानित किये गये। बढ़ती असहिष्णुता और उसके प्रति सरकार के रवैये तथा प्रो. कलबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादमी की चुप्पी के विरोध में 2015 में जिन लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस किये, उनमें सुरजीत पातर भी शामिल थे।
भारत सरकार ने 2012 में उन्हें पद्मश्री देने एलान किया। इस अवसर पर उन्होंने लिखा–
‘अमराई मैनूं आखण लगी, तू धरती दा गीत रहेंगा, पद्मश्री हो के वी तू मेरा सुरजीत रहेंगा।’
पातर साहब का साहित्य अपनी मिट्टी से गहरे जुड़ा हुआ था, इसलिए मिट्टी से जुड़े लोग जब किसान आंदोलन के रूप में सरकार की नीतियों के विरुद्ध धरने पर बैठे तो सुरजीत पातर ने इनके पक्ष में और सरकार की नीतियों के विरोध में अपना पद्मश्री लौटाने का एलान किया। उन्होंने 13 दिसंबर, 2020 को पंजाबी के ‘ट्रिब्यून‘ अख़बार में लिखा –
‘कॉर्पोरेट घराने इस समय सब कुछ हड़पने के लिए बेताब हैं। सारा कारोबार, सारी दौलत, सारी शक्तियां, सारे प्राकृतिक संसाधन। यहां तक कि बहुत सारी सरकारों को भी इन्होंने अपना ज़रख़रीद ग़ुलाम बना लिया है। अब ये गांवों को हड़पने के लिए चल पड़े हैं। इस ललचाये दैत्य की लार खेतों में गिर रही है। बड़ी-बड़ी मशीनें मनुष्य को रौंदकर बढ़ने के लिए तैयार हैं। इसीलिए सारा पंजाब किसान आंदोलन के सरोकारों की सार्थकता को नमस्कार कर रहा है।
‘दूसरी बात यह है कि जिस समझदारी, धीरज और सहनशीलता के साथ यह आंदोलन चलाया जा रहा है, उसने हमारी आत्माओं को तरो-ताज़ा कर दिया है। हमें यह एहसास हुआ कि पंजाब मरा नहीं, ज़िंदा है, इसके मन में पुरखों की याद ज़िंदा है, इसका सिदक ज़िंदा है। हमारे लोगों की एकता, शक्ति, खुशमिज़ाजी और चढ़दी कला को प्रणाम है।’
किसान आंदोलन से पहले भी सुरजीत पातर समय समय पर राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपनी बात बहुत बेबाक़ी से रखते रहे थे। ‘गुरु नानक वाणी में लोककथाओं का रूपांतरण’ उनका पीएच-डी का शोध-विषय था। लोक के प्रति उनका सरोकार हमेशा बना रहा। इसलिए उनकी कविता एक ओर गुरुओं-सूफ़ियों की परंपरा से तो दूसरी ओर जनांदोलनों के सरोकारों से जुड़ी रही। लेकिन उनकी कविता में बड़बोलेपन की बजाय सदा एक विनम्र दृढ़ता मिलती है।
जनवादी लेखक संघ सुरजीत पातर के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उनकी इन कविताओं के साथ उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
1
इतिहास तो हर पीढ़ी लिखेगी
बार-बार पेश होंगे
मर चुके
जीवितों की अदालत में
बार-बार उठाये जायेंगे क़ब्रों से कंकाल
हार पहनाने के लिए
कभी फूलों के
कभी कांटों के
समय की कोई अंतिम अदालत नहीं
और इतिहास आख़िरी बार कभी नहीं लिखा जाता।
(अनुवाद – चमन लाल)
2
मेरे शब्दो
मेरे शब्दो
चलो छुट्टी करो, घर जाओ
शब्दकोशों में लौट जाओ
नारों में
भाषणों में
या बयानों में मिलकर
जाओ, कर लो लीडरी की नौकरी
गर अभी भी बची है कोई नमी
तो मांओं, बहनों व बेटियों के
क्रंदनों में मिलकर
उनके नयनों में डूबकर
जाओ खुदकुशी कर लो
गर बहुत ही तंग हो
तो और पीछे लौट जाओ
फिर से चीखें, चिंघाड़ें ललकारें बनो
वह जो मैंने एक दिन आपसे कहा था
हम लोग हर अंधेरी गली में
दीपकों की पंक्ति की तरह जगेंगे
हम लोग राहियों के सिरों पर
उड़ती शाखा की तरह रहेंगे
लोरियों में जुड़ेंगे
गीत बन कर मेलों की ओर चलेंगे
दियों की फ़ौज बनकर
रात के वक़्त लौटेंगे
तब मुझे क्या पता था
आंसू की धार से
तेज़ तलवार होगी
तब मुझे क्या पता था
कहने वाले
सुनने वाले
इस तरह पथरायेंगे
शब्द निरर्थक से हो जायेंगे
( अनुवाद: चमन लाल)
3
पछुआ और पुरवैया
मेरे मुर्शिद, मेरे मक़तब, मेरे
हमदर्द, मेरे यारों
मैं इस शगुनों भरी सुबह
अपना मातमी सांझ जैसा चेहरा लिए आ पहुंचा हूं
मेरे बदशगुन शब्दों पर मेरा कोई
बस नहीं चलता
वरना त्योहार पर मैले-से वस्त्र
पहन कर कौन आता है
आप सम्मानित है निश्चिंत बैठ जाइए
आपकी नज़र झुक जाये
नहीं, इस कहर तक नौबत नहीं आयेगी
क्योंकि मुझे कदाचित किसी को कोई दोष नहीं देना
सिर्फ़ इकबाल करना है
नये पंजाब के शगुनों-भरे, आशा-भरे दिन और
मेरे मनहूस मन में सोग की एक लहर चलती है
गुरु जाने
ख़ुदा जाने
ख़ैर हो
मेरी रूह में क्या पता रूह किसी
ग़द्दार की ही आ समायी है
जो मेरे बदशगुन शब्दों के बीच
धीमे-से फुंकारती है:
ढाई नदियों का यह पंजाब
होगा किसी नेता के लिए पंजाब
मैं नेता नहीं हूं
मेरे पंजाब ने तो बहुत दिन हुए खुदकुशी कर ली थी
और उसकी मुट्ठियों में कोई आयत, शबद कोई
इस तरह लिखा मिला था :
मेरा क़ातिल नहीं कोई
मेरी हत्या किसी के हाथों नहीं हुई
मैंने आत्मघात किया है
और मेरी मौत का मातम करने का हक़ है
सिर्फ़ हवाओं को
पुरवा बहती, बहती पछुआ
पुरवा पछुआ के गले लग जब विलाप करती है
तब सीमा पर खड़ा सैनिक
या सरहद पर खड़ा फौजी हवा में फ़ायर करता है
तब पेड़ों से सिहर कर पंछी आसमान में पनाह खोजते हैं
हवा पेड़ों के आंसू पोंछती है, सिसकती है:
मेरा क़ातिल नहीं कोई
मेरी हत्या किसी के हाथों नहीं हुई
मैंने आत्मघात किया है
कभी जब रेडियो लाहौर से कोई गीत सुनता हूं
तब मुझे लगता है
पुरवा पछुआ संग मिल कर रो रही है
अचानक अपने हाथों पर सुर्ख़ दाग़ दिखते हैं
कभी जब देश के रखवालों को आवाज़ पड़ती
या वतन के ग़ाज़ियों को पुकार सुनायी देती
तब मुझे समझ नहीं आता
मैं ग़ाज़ी हूं या रखवाला
भला मैं भी किन क़िस्सों को छेड़ बैठा हूं
मुबारक़ दिन है आओ
नये पंजाब की लंबी उम्र के लिए वंदन करें
इसकी सरहद पर झंडा फहरा दें
किसी जासूस की तरह सुन सकें कि क्या फुसफुसाती हैं
जब पछुआ और पुरवैया गले लग कर सिसकती हैं
(‘आलोचना’ पत्रिका,अनुवाद – बलवंत कौर)