‘जश्न-ए-अलविदा’ पर एतराज़ क्यों?

नयी दिल्ली : 4 मार्च 2025 : यह बेहद शर्मनाक है कि राजस्थान शिक्षा विभाग ने बारां ज़िले के महात्मा गांधी गवर्नमेंट स्कूल में एक विदाई समारोह का नाम ‘जश्न-ए-अलविदा’ रखे जाने का संज्ञान लेते हुए उसे ‘विभागीय दिशा-निर्देशों के विपरीत’ पाया है और उसकी जांच के लिए एक तीन-सदस्यीय कमेटी गठित कर दी है।

अगर एक विदाई समारोह का नाम ‘जश्न-ए-अलविदा’ रखना विभागीय दिशा-निर्देशों के ख़िलाफ़ है तो जांच इसकी होनी चाहिए कि ऐसे दिशा-निर्देश किसने और किस मक़सद से बनाये हैं। इंडियन एक्स्प्रेस में प्रकाशित ख़बर यह तो नहीं बताती कि उन दिशा-निर्देशों में क्या कहा गया है, पर अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां सिर्फ़ आधिकारिक पत्राचार में नहीं बल्कि विद्यालय की हर गतिविधि में तथाकथित ‘शुद्ध’ हिंदी के प्रयोग की बात कही गयी होगी।

ऐसी ‘शुद्ध हिंदी’ की संकल्पना ही भ्रामक है जिसमें अरबी-फ़ारसी-पश्तो-तुर्की मूल से आये शब्दों के लिए जगह न हो। ऐसी ‘शुद्ध हिंदी’ गढ़ना न तो मुमकिन है, न ही हिंदी की रवायत और लोक-व्यवहार को देखते हुए वाजिब है। आरएसएस-भाजपा साझा संस्कृति के विरोध की अपनी राजनीति के तहत बार-बार ऐसी हिंदी गढ़ने पर ज़ोर देते हैं और इसी देश में जन्मी हुई उर्दू को विदेशी साबित करने तथा इस्लाम से उसका संबंध स्थापित करने की कोशिश करते हैं। उत्तर प्रदेश विधान सभा में उर्दू की पढ़ाई को लेकर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का वह बयान अभी पुराना नहीं पड़ा है जिसमें उन्होंने उर्दू के अध्ययन को कठमुल्लापन से जोड़ा था।

 हिंदी के ‘शुद्धिकरण’ और उर्दू के तिरस्कार-बहिष्कार का यह रवैया बेहद अफ़सोसनाक है। कोई भी भाषा विभिन्न स्रोतों से शब्द लेकर अपने को समृद्ध ही करती है। उसे संकीर्ण करने के प्रयासों की निंदा की जानी चाहिए। जनवादी लेखक संघ इस रवैये की भर्त्सना करता है और राजस्थान शिक्षा विभाग से मांग करता है कि ‘जश्न-ए-अलविदा’ नाम की जांच के लिए बिठायी गयी कमेटी को अविलंब वापस ले। 

 


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