हिंदी के तेजस्वी चिन्तक, नाटककार, कथाकार और व्यंग्यकार श्री मुद्राराक्षस का निधन हम सबके लिए बहुत दुखद सूचना है. वे जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे. लखनऊ में लम्बी बीमारी से जूझते हुए कल, 12-6-2016 को 85 वर्षीय मुद्रा जी का इंतकाल हो गया.
मुद्राराक्षस बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे. ‘मरजीवा’, ‘योर्स फेथफुली’, ‘तेंदुआ’, ‘तिलचट्टा’, ‘गुफाएं’, ‘आला अफ़सर’ समेत कुल 13 मंच-नाटक उन्होंने लिखे. लगभग 30 मंच-नाटकों का निर्देशन भी किया. उनके उपन्यासों में ‘दंडविधान’ और ‘हस्तक्षेप’ प्रसिद्ध हैं. कई कहानी-संग्रह भी हैं. व्यंग्य-संग्रह ‘प्रपंच-तंत्र’ और आलोचना-पुस्तक ‘आलोचना का समाजशास्त्र’ के अलावा ‘धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ और ‘भगतसिंह होने का मतलब’ जैसी वैचारिक पुस्तकों से उनके लेखन-कर्म के व्यापक दायरे का पता चलता है.
मुद्रा जी स्पष्टवक्ता और साहसी चिन्तक थे. अपने विचारों के साथ कोई समझौता न करना और अपने मूलगामी चिंतन को निडर भाव से लेखन और भाषण में व्यक्त करना उनका स्वभाव था. जनवाद के पक्ष में अपने संघर्ष को उन्होंने किसी भी मुक़ाम पर कमज़ोर नहीं पड़ने दिया. 1962 से 1976 तक दिल्ली में आकाशवाणी में काम करते हुए उन्होंने कर्मचारियों को संगठित करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी. वे लम्बे समय तक वहाँ की यूनियन में महासचिव के पद पर रहे. उर्दू के पक्ष में जनवादी लेखक संघ के स्पष्ट रुख से प्रभावित होकर वे जलेस में शामिल हुए थे और आख़िरी समय तक संगठन के उपाध्यक्ष रहे. उर्दू की हिफ़ाज़त और फ़रोग के लिए जलेस केंद्र की ओर से लखनऊ में आयोजित सभा की सदारत करते हुए मुद्रा जी ने जो भाषण दिया था, वह आज भी याद किया जाता है. उसी अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था कि हिन्दी अपनी बोलियों की और उर्दू ज़ुबान की कब्र पर फल-फूल नहीं सकती.
मुद्राराक्षस का निधन जनवादी लेखक संघ और हिन्दी की दुनिया के लिए एक बड़ी क्षति है. हम अपने इस वरिष्ठ साथी और जनवाद की लड़ाई के जुझारू योद्धा को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं.