आज़ाद वतन , आज़ाद जुबां -2 / आम्बेडकर के सपनों का भारत
(एक उन्मुक्त रपट : 14.04.2016)
आशुतोष कुमार
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एक कसी हुई बैठक . कसमसाती-सी.
वक्ता अधिकतर नौजवान थे , सभा-संवादी भी .
शीलबोधि ने सत्ता -संरचना में दलित भागीदारी का सवाल मजबूती से उठाया . फैसलाकुन जगहों पर दलितों -वंचितों की दावेदारी जितनी बढ़ेगी , सत्ता का चेहरा ही नहीं , उसकी चाल भी बदलेगी .
रामायन राम ने याद दिलाया कि आम्बेडकर ने चेताया था कि हिंदू धर्म द्वारा पोषित जाति व्यवस्था के आधार पर भारतीय राष्ट्र का निर्माण नहीं किया जा सकता . जाति भावना के रहते राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय एकता का विचार पनप ही नहीं सकता . जाति राष्ट्र और लोकतंत्र दोनों की एंटीथीसिस है . इस आम्बेडकरी विज़न को झुठला कर जो लोग राष्ट्रवाद और लोकतंत्र की बात करते हैं , वे एक ऐसा प्रपंच रहते हैं , जो इन दोनों के समूल विनाश का अचूक उपाय बन जाता है .
रामा नागा ने रोहित आन्दोलन और और उससे निबटने के लिए विश्वविद्यालयों के खिलाफ़ चलाए जा रहे रहे कुत्सित राजनीतिक अभियानों का ज़िक्र किया . इन अभियानों के खिलाफ़ छात्रों -शिक्षकों -लेखकों का जो प्रतिबद्ध आन्दोलन देश भर नें उठ खड़ा हुआ है , उसने फासीवाद के खिलाफ़ उत्पीड़ितों की व्यापक एकता की जमीन तैयार कर दी है . यह संघर्ष की एकता है , जो आपसी वैचारिक अंतर्विरोधों को नकार कर नहीं , उसे एक दोस्ताना मगर उद्देश्यपूर्ण बहस का रूप देकर निर्मित हो रही है . बहस के बीच एकजुटता का यह अनायास उभार प्रतिरोध को ठोस और स्थायी बनाता है . यह जल्दी टूट कर बिखर जाने वाली दिखावटी एकता नहीं है . यह आन्दोलन और बहस से निकली हुई रचनात्मक एकता है , जो एक नए राजनीतिक विकल्प की सम्भावना जगा रही है .
अभय कुमार दुबे ने संजीदगी से सवाल उठाया कि दलित और वाम आंदोलनों की प्रस्तावित राजनीतिक एकता का सैद्धांतिक आधार क्या होगा ? क्या जाति और लिंग के सवालों का सामना करने केलिए कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपनी वर्ग-संघर्ष केन्द्रित सैद्धांतिकी का पुनरीक्षण करने की कोई गंभीर पहल की है या वे इन्हें महज रणनीतिक समायोजन के तहत उठा रहे हैं ? क्या दलित पार्टियां वाम के साथ राजनीतिक एकता की किसी सैद्धांतिकी पर काम कर रही हैं , या वे भी इसे महज फौरी जरूरत के रूप में देख रही हैं ? क्या वे इन फौरी उपायों से दक्षिणपंथ के उन मंसूबों को नाकाम कर सकेंगे , जो आम्बेडकरी चेतना को प्रभावहीन कर देने के लिए हिंदुत्व का एक नया नक्शा बनाने में जीजान से लगे हुए हैं , जिसमें मनु के विधान और आम्बेडकर के सम्विधान को गड्डमड्ड किया जा रहा है ?
कवितेंद्र इंदु ने बहस को आगे बढाते हुए सवाल उठाया कि जरूरत क्या केवल वर्ग , जाति और जेंडर के प्रश्नों के रणनीतिक और सैद्धांतिक समायोजन की है , या उस राजनैतिक समीकरण का भंडाफोड़ करने की भी है , जहां तमाम तीनों दमनकारी सत्ताएं एक दूसरे को ताकत मुहैया करती हुई एकात्म होकर कार्यरत होती हैं और उत्पीड़ितों को अनेक उपायों से लगातार विभाजित करते हुए कमजोर करती जाती हैं . पितृसत्ता , जातिसत्ता और वर्गवर्चस्व का शैतानी कारोबार एक दूसरे के बिना नहीं चल सकता . इसलिए इनके खिलाफ़ लड़ाई भी एक ही समय में और एक ही साथ लड़ी जा सकती है . इसलिए सवाल एकता या एकजुटता का नहीं , एकाग्रता का है . अगर राजनीतिक पार्टियां इस हकीकत से देर तक नज़रें चुराती रहेंगी , तो जनआकांक्षाएं नए राजनीतिक आंदोलनों के रूप में फूट पड़ेंगी . आज चारो तरफ इन आंदोलनों की चुनौतीपूर्ण दस्तक सुनाई दे रही है .
अनिता भारती ने प्रतिरोध की एकाग्रता के सवाल को और ऊंची सतह पर ले जाते हुए पूछा कि क्या कारण है कि बाबा साहेब ने जिस विराट ऊर्जस्वी दलित स्त्री आन्दोलन को सक्रिय किया था , वह उनके बाद अपना क्रांतिकारी आवेग गंवाता चला गया . दलित आन्दोलन के भीतर पितृसत्ता -विरोधी स्वर को इतनी उपेक्षा का शिकार क्यों होना पड़ा कि आज दलितस्त्री को एक नये विमर्श के रूप में अपनी आवाज़ उठानी पड़ रही है ? क्या कारण है कि प्रतिरोध के दो बड़े आन्दोलन , दलित और वाम , आज भी एक दूसरे के साथ सहज और आश्वस्त महसूस नहीं करते ? इन बुनियादों सवालों का सामना किए बिना ब्राह्मणवाद और फासीवाद के खिलाफ़ लड़ाई अधूरी , एकांगी और असहाय बनी रहेगी .
गोष्ठी जितनी प्रश्नाकुल और विचारोत्तेजक थी , सभा-सम्वादियों का हस्तक्षेप भी उतना ही जीवंत और बहुरंगी था. आज की सभा दिखा रही थी कि आन्दोलन गम्भीर विचार मंथन के दौर में प्रवेश कर गया है , जो कि एक निहायत शुभ लक्षण है . यहाँ तक कि ‘शुभ लक्षण’ कहना भी यहाँ अटपटा लग रहा है . कहना चाहिए , अद्भुत आशाप्रद संकेत है !
रामनरेश राम के सुविचारित संचालन ने इस गहन गम्भीर बैठक की धार जगाए रखी और संजीव कुमार के धन्यवाद ज्ञापन ने उसकी गरिमा .
हाँ, बीच में गुरिंदर आज़ाद और रानी ने दो उम्दा कविताएँ सुनाईं