2 जुलाई, 2016 को पंजाबी भवन, नयी दिल्ली में जनवादी लेखक संघ केंद्र की ओर से प्रसिद्ध नाटककार, कथाकार और चिन्तक, ‘मुद्राराक्षस को याद करते हुए’ एक सभा हुई. मुद्रा जी के प्रशंसक और उनके दोस्त व राजधानी क्षेत्र के अनेक लेखक इस सभा में शामिल हुए। यह सभा सिर्फ औपचारिकता भर नहीं थी, चर्चा इतनी गंभीर और सार्थक रही कि लोग आयोजन की सफलता के अहसास के साथ सभागार से उठे. बजरंग बिहारी, आशुतोष कुमार, जवरीमल्ल पारख, चंचल चौहान, मिथिलेश श्रीवास्तव और सदारत करते हुए इब्बार रब्बी में से किसी ने भी औपचारिकता निभाने भर के लिए नहीं बोला. सबके पास इतना कुछ कहने को था कि समय दिया जाता तो घंटे-घंटे भर बोलते. अच्छी बात यह थी कि मुद्राराक्षस के मूल्यांकन को लेकर वक्ताओं में मतैक्य भी नहीं था. हाँ, निश्चित रूप से उनकी शक्तियां और सीमाएं बताते हुए सबने उनके महत्व को और हिन्दी के परिदृश्य में उनकी ज़रूरी उपस्थिति को रेखांकित किया.
चर्चा की शुरुआत करते हुए बजरंग जी ने मुद्राराक्षस को सत्ता का स्थायी प्रतिपक्ष बताया. कहा कि अगर वे खुद कभी सत्ता में जाते तो अपने ही प्रतिपक्ष बन जाते. वे दलित साहित्य की ओर आनेवाले प्रारम्भिक मार्क्सवादियों में से थे. उन्होंने दलित प्रश्न को श्रम के प्रश्न से जोड़कर देखने की कोशिश की और उसे अस्मितावाद से अलग करके देखा. वे जड़ मार्क्सवादी नहीं थे. अलबत्ता दलित चिंतन को लेकर वे ‘सात खून माफ़ करने’ वाली भाषा में बोलते थे. उनकी भाषा में आक्रामकता भी थी जो ‘धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ में दिखती है. हालांकि वह कोई गंभीर पुस्तक नहीं है. धर्मग्रंथों को, अक्सर उनके अनुवादों की मदद से, इतनी जल्बाजी में निपटाया नहीं जा सकता. नाटककार के रूप में उनका योगदान बड़ा था और उस पर काम होना चाहिए. आज मुद्रा जी को याद करते हुए सबसे बड़ी चुनैती है कि हम अपने प्रतिपक्ष की पहचान करें. जीवन के हर क्षेत्र में नव-उदारवादी हमले का ज़िक्र करते हुए बजरंग जी ने उसके ख़िलाफ़ मुद्राराक्षस के तेवर अपनाने की सिफारिश की.
जवरीमल्ल पारख ने कहा कि मुद्रा जी के लेखन में भी और व्यक्तित्व में भी मार्क्सवाद के प्रति, मजदूरों के प्रति और दलितों के प्रति आस्था थी. उनका अध्ययन क्षेत्र बहुत विस्तृत था. इसीलिए उनका लिखा हुआ भी हमेशा चर्चा में रहा. जहाँ तक समग्र मूल्यांकन की बात है, तो हिन्दी में बहुत कम लोगों का ठीक से मूल्यांकन हो पाया है. अगर मुद्रा जी का नहीं हुआ है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं. मुझे धर्मग्रंथों पर किये गए उनके काम में गहराई दिखी. वह आहूत व्यवस्थित ढंग से लिखी गयी पुस्तक नहीं है, लेकिन बहुत रोचक है. वे भी यह मानते थे कि आर्य बाहर से नहीं आये थे, लेकिन रामविलास शर्मा और भगवान सिंह से अलग विचार था उनका. वे ‘धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ में कहते हैं कि आर्य कोई जातीय समूह ही नहीं थे, और दूसरे, ब्राह्मण बाहर से आये थे. जवरीमल्ल पारख ने कहा कि इस किताब को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए. ब्राह्मण ग्रंथों में क्या है, इसकी उन्होंने विस्तार से चर्चा की है. अतिवाद उनके लेखन में था, लेकिन इसी से उसकी प्रासंगिकता ख़त्म नहीं हो जाती. वे लिखते हुए किसी से डरते नहीं थे.
आशुतोष कुमार ने कहा कि आज के समय में जब विवाद बहुत कम उठते हैं और एक तरह का सर्व-स्वीकार्य लेखन ही देखने को मिलता है, मुद्रा जी का विवादास्पद लेखक होना मायने रखता है. धर्मग्रंथों के पुनर्पाठ की बात करना ही इस बात पर जोर देना है कि इनका एक तरह का पाठ ही ज़रूरी नहीं. अलग तरह से भी इन्हें पढ़ा जा सकता है, पढ़ा जाना चाहिए. उस तरह से पढने की उनमें हिम्मत थी, यह बड़ी बात है. प्रेमचंद में भी अगर वे दलित प्रश्न के आलोक में कमियाँ ढूंढते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं. प्रेमचंद इसी समाज से आते थे और उनमें भी समाज के पूर्वग्रह हो सकते हैं, इस बात के प्रति अपने को खुला रखना ज़रूरी है. मुद्रा जी से सहमति-असहमति हो सकती है, लेकिन वे सभी चीज़ों पर सवाल उठाने का जो काम कर रहे थे, उसके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता.
चंचल चौहान ने मुद्राराक्षस के दिल्ली के दौर को याद करते हुए बताया कि वे आकाशवाणी की यूनियन चलाते थे और तब जबकि वह यूनियन सी पी आई से जुड़ी थी, वे डांगे साहब की आलोचना करने से कतराते नहीं थे. वे साहित्य में भी और समाज में भी प्रतिपक्ष की भूमिका में रहे. एक फक्कडपन, मस्ती, व्यंग्यपरकता और क्रिटिकल होना उनके स्वभाव में था. हाँ, सही परिप्रेक्ष्य मिल जाए तो उसकी सराहना भी करते थे. उर्दू को लेकर जनवादी लेखक संघ के इस स्टैंड से कि “उर्दू की रक्षा और विकास का सवाल इस देश में लोकतंत्र की रक्षा और विकास का सवाल है”, वे सहमत थे और उर्दू को लेकर जब लखनऊ में जलेस ने संगोष्ठी की, उसी के दौरान उन्होंने जलेस की सदस्यता का फॉर्म भरा. ‘सहारा’ के अपने स्तम्भ में उन्होंने ममता बनर्जी के साथ खड़े होने के लिए महाश्वेता देवी की कड़ी आलोचना की थी. वे एक बड़े रचनाकार थे. अंग्रेज़ी में भी उनके खूब अनुवाद छपे. तानाशाही प्रवृत्तियों का उन्होंने हमेशा विरोध किया.
मिथिक्लेश श्रीवास्तव ने मुद्रा जी को अपने प्रेरणास्रोतों में से एक बताया. उन्होंने इस बात से असहमति ज़ाहिर की कि मुद्रा जी का मूल्यांकन नहीं हुआ. उनके कॉलम सभी लोग पढ़ते थे और उनकी लोकप्रियता सिर्फ़ साहित्य तक सीमित नहीं थी.
अंत में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए इब्बार रब्बी ने मुद्राराक्षस को बहुत आत्मीयता से याद किया. वे बोले, ‘सोचिये, कोई आदमी अपना नाम मुद्राराक्षस रख सकता है! कितना विचित्र इंसान था!’ उन्होंने आशुतोष की बात को याद करते हुए कहा कि वह पीढी विवादों को पैदा करती थी और जूझती थी. मुद्रा हमेशा हर किसी से बराबरी के स्तर पर बात करते थे, बड़े-छोटे का भेद नहीं करते थे. उनके नाटक अद्भुत हैं और उनकी भूमिकाएं भी. गोगोल के नाटक को जब वे ‘आला अफसर’ के नाम से हिन्दी में लाये तो उसे बिल्कुल हिन्दी के मौलिक नाटक जैसा बना दिया. वे कभी-कभी अतिवादी होकर भी झूठी धारणाओं को तोड़ते थे. मुद्रा यह मानते थे कि यूनियन ने उन्हें यांत्रिक मार्क्सवादी होने से बचाया. पंचतंत्र की तर्ज पर लिखा उनका ‘प्रपंचतंत्र’ अद्भुत किताब है. उनकी कहानियों का भी कोई सानी नहीं.
कार्यक्रम का संचालन संजीव कुमार ने किया और उन्हीं के धन्यवाद-ज्ञापन के साथ सभा समाप्त हुई.
—- अतुल कुमार