नयी दिल्ली : 10 मार्च : डॉ. धर्मवीर का असामयिक निधन हिन्दी साहित्य और दलित आन्दोलन के लिए एक बड़ी क्षति है. वे कैंसर से पीड़ित थे. एक बार स्वास्थ्य-लाभ कर चुकने के बाद दुबारा कैंसर के हमले को उनका शरीर झेल नहीं पाया और कल रात उनका इंतकाल हो गया. वे 67 वर्ष के थे.
डॉ. धर्मवीर अपने विचारोत्तेजक लेखन और मौलिक दृष्टि के लिए जाने जाते थे. ‘हिंदी की आत्मा’ और ‘कबीर के आलोचक’ जैसी उनकी किताबें लम्बे समय तक याद की जायेंगी. इनके अलावा भी उनकी कई पुस्तकें चर्चित रहीं– ‘दलित चिन्तन का विकास: अभिशप्त चिंतन से इतिहास चिंतन की ओर’, ‘कबीर: खसम खुसी क्यों होय’, ‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी’, ‘प्रेमचंद की नीली आँखें’, ‘मातृसत्ता, पितृसत्ता और जारसत्ता’, ‘कबीर और रामानंद: किम्वदंतियां’, ‘कबीर के कुछ और आलोचक’, ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रक्षिप्त चिंतन’, ‘अशोक बनाम वाजपेयी: अशोक वाजपेयी’, ‘दूसरों की जूतियाँ’, ‘मेरी पत्नी और भेड़िये’ (आत्मकथात्मक कृति) इत्यादि. हिन्दी के अनेक विचारकों, आंदोलकारियों और शोधार्थियों को डॉ. धर्मवीर से ही कबीर को नए नज़रिए से देखने की प्रेरणा मिली. उनके कई विचार ख़ासे विवादास्पद भी रहे, जिन पर हिन्दी जगत तथा दलित आन्दोलन के भीतर भी तीखा विभाजन देखने को मिलता है. जारकर्म और जारसत्ता से सम्बंधित उनके विचार तथा उनका धर्मसम्बन्धी चिंतन इसी श्रेणी में हैं. सहमति-असहमति से परे इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि उनके लेखन को बहुत गंभीरता से लेने की ज़रूरत है और कहना चाहिए कि उनका समग्र मूल्यांकन होना अभी बाक़ी है.
जनवादी लेखक संघ डॉ. धर्मवीर को श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है.