जलेस केन्द्रीय कार्यकारिणी एवं केन्द्रीय परिषद् की बैठक : 30.04.2017
महासचिव की रिपोर्ट
पिछले राष्ट्रीय सम्मलेन के बाद से यह हमारी केन्द्रीय कार्यकारिणी की चौथी और केन्द्रीय परिषद् की पहली बैठक है. बैठकों की संख्या इससे अधिक होनी चाहिए थी, यह हम स्वीकार करते हैं. ख़ास तौर से परिषद् की बैठक बुलाने के मामले में हमने ख़ासी देरी की. हां, कार्यकारी मंडल के सदस्य बीच-बीच में मिलते रहे, पर कार्यकारिणी की एक बैठक में साथी राजेंद्र शर्मा ने दो महीने में कार्यकारी मंडल के कम-से-कम एक बार मिलने का जो सुझाव रखा था, उस पर अमल नहीं हो पाया. इन सबके लिए जो परिस्थितियां ज़िम्मेदार हैं, उनका लेखा-जोखा यहां रखने का कोई मतलब नहीं. हमारी बैठकों की आवृत्ति पहले भी इससे अधिक नहीं रही, पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि हम राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह के हालात में घिरे हैं, उसे देखते हुए प्रतिरोध की कार्यनीति तय करने की दिशा में हमारी सक्रियता पहले के मुक़ाबले अधिक होनी चाहिए थी.
यहां किन हालात की बात की जा रही है, साथियों को पता है. पिछले तीन सालों से हम राष्ट्रीय स्तर पर नवउदारवाद और आरएसएस की विचारधारा के मारक गठजोड़ से रू-ब-रू हैं. दोनों में से कोई चीज़ नयी नहीं है, पर केंद्र की सत्ता पर भाजपा के क़ाबिज़ होने के बाद से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में इनकी कारगुज़ारी का एक सम्मिलित राष्ट्रीय-राजकीय मंच तैयार हुआ है. इस ख़तरे को हमने इलाहाबाद सम्मलेन में पारित ‘इलाहाबाद घोषणा’ में सूत्रबद्ध किया था और तीन महीने बाद ही हमारी आशंकाएं महज़ आशंका नहीं रह गयीं. पिछली तीनों कार्यकारिणी बैठकों में हम अपनी रिपोर्ट में मई 2014 के बाद उभरे हालात और अनवरत नकारात्मक घटना-विकासों को लेकर चिंता ज़ाहिर करते रहे हैं.
निश्चित रूप से, 16 मई 2014 के बाद पूरे भारतीय परिदृश्य में एक गुणात्मक बदलाव आया है. भारतीय राज्य ने उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीति 25 साल पहले स्वीकार कर ली थी और उसके अनुरूप सभी तरह के संरचनात्मक समायोजनों का सिलसिला इन सालों में लगातार चलता रहा, लेकिन पूंजीवाद के सबसे लुटेरे संस्करण नवउदारवाद के केंद्र में लोककल्याणकारी राज्य को ख़त्म करने की जो बुनियादी प्रतिज्ञा है, उसे लेकर हमारे शासकों में नगण्य-सी ही सही, एक झिझक रह गयी थी. नए निज़ाम के आने के साथ वह जाती रही. मुनाफ़ाखोर पूंजीपति वर्ग को नियमन संबंधी किसी भी तरह की बाधा स्वीकार्य नहीं थी, साथ ही, उसे हर क्षेत्र को लाभकारी व्यवसाय के लिए खोले जाने की ज़रूरत महसूस हो रही थी. इसीलिए मोदी उसकी पहली पसंद बने जिन्होंने घोर जनविरोधी गुजरात मॉडल के स्थपति के रूप में बड़ी पूंजी का भरोसा जीता था और गुजरात में हुए मुस्लिम जनसंहार के योजनाकार के रूप में क़ानून की धज्जियां उड़ानेवाले क्रूर शासन की मिसाल क़ायम की थी. मोदी ने केंद्र की सत्ता में आते ही अपने साथ जुड़ी उम्मीदों पर खरा उतरने की दिशा में कुछ भी उठा न रखा. भूमि-अधिग्रहण कानून को कमज़ोर करने की असफल कोशिश, योजना आयोग को रद्द करने, मनरेगा जैसी योजनाओं को अशक्त करने, पर्यावरण की चिंताओं को दरकिनार करते हुए औद्योगिक प्रस्तावों को हरी झंडी देने जैसी तमाम कारगुज़ारियों को इसी रूप में देखा जाना चाहिए.
दूसरी तरफ, मई 2014 से हिन्दुत्ववादी असहिष्णुता के मामले में बड़ा गुणात्मक अंतर यह आया कि पहले वह कांग्रेसी सरकारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, लापरवाही, नालायकी या ढुलमुलपन के बल पर फूलती-फलती थी, नए निज़ाम में उसे राज्याश्रय मिल गया. भारत के संवैधानिक ढांचे के भीतर यह राज्याश्रय कानूनी स्तर पर मिल पाना मुमकिन न था, इसलिए वह ग़ैर-कानूनी रास्ते से मिला. यह रास्ता था, सत्ताधारी पार्टी द्वारा प्रशासन और पुलिस का अपने लोगों के पक्ष में और विरोधियों के ख़िलाफ़ छुट्टा इस्तेमाल. आज आरएसएस एक परा-संवैधानिक प्राधिकार के रूप में सरकार चला रहा है और उसके इशारे पर धर्मनिरपेक्ष शक्तियों और अल्पसंख्यकों पर हमले लगातार जारी हैं. उन्हें रोकनेवाला कोई नहीं. वे भारत माता और गोमाता के नाम पर किसी की जान ले सकते हैं, हर छोटी-बड़ी तकरार को सांप्रदायिक दंगे में तब्दील कर सकते हैं, दूसरों के आयोजनों में खुलेआम तोड़फोड़ मचा सकते हैं, आयोजकों और संस्कृतिकर्मियों-बुद्धिजीवियों के खिलाफ अभियान चलाकर उनका जीना मुहाल कर सकते हैं, एफ़आईआर दर्ज करवा कर उन्हें उत्पीड़ित कर सकते हैं, अपनी दहशतगर्दी से विश्वविद्यालयों और संस्थाओं पर आयोजन के लिए जगह मुहैया न कराने का दबाव बना सकते हैं, आज़ादख़याल महिलाओं को गैंग-रेप की और हिंदुत्ववादी ज़्यादतियों की आलोचना करने वालों को सर कलम करने की धमकियां दे सकते हैं. प्रशासन और पुलिस-बल उनके द्वारा दर्ज देशद्रोह की या भावनाएं आहत किये जाने की शिकायतों पर अविलम्ब सक्रिय हो जाता है, जबकि उनके बारे में दर्ज करवाई गयी शिकायतों पर टालमटोल तब तक चलती रहती है जब तक बुद्धिजीवी समाज या जनता का दबाव ख़तरे के निशान से ऊपर न जाने लगे, और उसके बाद भी पुलिस-प्रशासन का रवैया यह साफ़ दिखाता है कि दोषियों के ख़िलाफ़ मामले को कमज़ोर करने में ही उनकी दिलचस्पी है. राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने भाजपा के सत्ता में आने के बाद से जिस तरह हिन्दू आतंकवादियों के मामलों को एक-एक कर खोखला किया है, वह आँखें खोलने वाला है. यही स्थिति हर जगह है. पिछले छह महीने की घटनाएं भी उठा लें तो हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में ‘द्रौपदी’ के मंचन, मथुरा में नास्तिक सम्मलेन, जोधपुर के हरिनारायण व्यास विश्वविद्यालय में निवेदिता मेनन के व्याख्यान, रामजस कॉलेज में ‘कल्चर्स ऑफ़ प्रोटेस्ट’ के आयोजन – इस तरह के सभी मौकों पर हिन्दुत्ववादियों ने जो हिंसक गुंडागर्दी की, उनमें प्रशासन और पुलिस ने सीधे-सीधे या प्रकारांतर से सहयोगी की भूमिका ही निभायी. अलवर में मुकम्मल दस्तावेज़ों के साथ गाय ले जाते हुए पहलू खान की गोरक्षकों द्वारा पीट-पीटकर की गयी निर्मम हत्या के बाद हत्यारों के ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज करने के बजाये अलवर पुलिस ने पहली एफ़आईआर ‘राजस्थान बोवाइन एनिमल एक्ट 1955’ के तहत पहलू खान और उसके सहयोगी के ख़िलाफ़ दर्ज की. वहाँ के एसपी ने बयान दिया कि ‘वे सौ फ़ीसदी पशु-तस्कर थे, अलबत्ता यह कहना मुश्किल है कि उन पर हमला करनेवालों को यह बात निश्चित रूप से पता थी या नहीं.’ इस बयान में यह निहित है कि पशु-तस्कर होने की बात अगर किसी भीड़ को पता हो तो उसके द्वारा की गयी हत्या जायज़ हो जाती है. राजस्थान के गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया का उस घटना के तुरंत बाद दिया गया बयान इसी आशय का था: ‘गलती दोनों तरफ़ की है. लोगों को पता है कि गाय की तिज़ारत ग़ैर-कानूनी है, फिर भी वे यह काम करते हैं. गौभक्त इस अपराध में लिप्त लोगों को रोकने का प्रयास करते हैं.’ न राजस्थान और न ही हरियाणा के मुख्यमंत्री ने इस घटना पर कोई खेद जताया. अभी 25 अप्रैल को पहली बार वसुंधरा राजे सिंधिया ने विधानसभा में हुए हंगामे के बाद अपना मुंह खोला है और यह औपचारिक आश्वासन दिया है कि अपराधियों को सज़ा मिलना सुनिश्चित किया जाएगा.
हिन्दुत्ववादी असहिष्णुता को मिले हुए इस राज्याश्रय के अनगिनत दृष्टांत पिछले तीन सालों में सामने आये हैं. उत्तरप्रदेश में भाजपा की जीत और आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद इस सिलसिले को नयी ऊर्जा मिली है. अवैध बूचड़खानों को बंद कराने की आड़ में मुस्लिम और दलित समुदाय की आजीविका पर ज़बरदस्त हमला हुआ है. बड़ी संख्या में मांस के व्यापार में लगे मुसलमानों और खटिक जाति के लोगों तथा चमड़े के रोज़गार में लगे दलितों की रोज़ी-रोटी छिन गयी है. पूरे प्रदेश में भगवा आतंक क़ायम है. ज़्यादातर मामलों में पुलिस इनकी मददगार है और कई बार वह इनके हरवे-हथियार की भूमिका निभाती है. जहां वह मददगार बनने के लिए राज़ी न हो और क़ानून का शासन लागू करने की जिद पर आ जाए, वहां पुलिस को भी इनकी कार्रवाइयों का निशाना बनना पड़ता है. अभी-अभी सहारनपुर में दंगे भड़काने वाले भाजपा सांसद ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के घर पर इसलिए तोड़-फोड़ करवाई कि पुलिस ने दंगे भड़काने वाले जुलूस के लिए इजाज़त नहीं दी थी और इस अवैध जुलूस की हिफ़ाज़त करते हुए मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिन्दुत्ववादियों के सशस्त्र बल की भूमिका नहीं निभायी थी. इसी तरह फ़तेहपुर सीकरी में दो मुस्लिम युवकों पर बजरंग दल के हमले में शामिल कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी के बाद बजरंग दल ने भाजपा एमएलए उदयभान सिंह के नेतृत्व में थाने का घेराव किया और एक उप-अधीक्षक के साथ मारपीट की गयी. इस मारपीट के आरोप में पकड़े गए पांच कार्यकर्ताओं को जब आगरा के सदर बाज़ार थाने में स्थानांतरित किया गया तो उन्हें छुड़ाने के लिए बजरंग दल के नेतृत्व में पहुंची हुई भीड़ ने दरोगा संतोष सिंह पर ईंट-पत्थरों से हमला कर उन्हें अधमरा कर दिया.
ग़रज़ कि परा-संवैधानिक शक्ति के रूप में केंद्र और अनेक राज्यों की सरकारों को संचालित कर रहे आरएसएस का यह सपष्ट सन्देश है कि प्रशासन और पुलिस हिंदुत्व के प्रसार तथा एकछत्र वर्चस्व की ग़ैर-क़ानूनी मुहिम का साधन बनें, नहीं तो उन्हें भी बख्शा नहीं जाएगा. भारतीय संविधान की मूल प्रतिज्ञाओं के विरुद्ध व्यवहार में एक हिन्दू राष्ट्र को साकार करने का यही ज़रिया हो सकता है. इस ज़रिये का इस्तेमाल करके वे तमाम विरोधी आवाजों को चुप कराने में कामयाबी हासिल कर रहे हैं. सबसे चिंताजनक बात यह है कि उनके आतंक के कारण व्यक्तियों और संस्थाओं में एक तरह की झिझक और सेल्फ-सेंसरशिप भी दिखने लगी है. विश्वविद्यालयों में आतंरिक प्रतिबन्ध का माहौल है जो आलोचनात्मक विवेक विकसित करने के बुनियादी शैक्षिक उद्देश्य के बिलकुल उलट है.
हिन्दुत्ववादी हमले के इस भयावह माहौल में जनता के बड़े हिस्सों की बेरोज़गारी, भुखमरी, किसानों की खुदकुशी और कॉर्पोरेट क्षेत्र को पहुंचाए जा रहे कल्पनातीत लाभों के मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गए हैं. इस तरह हिंदुत्व की राजनीति नवउदारवादी लक्ष्यों की पूर्ति में अनन्य सहयोगी की भूमिका निभा रही है—सरकारों द्वारा की जा रही बड़ी पूंजी की सेवा की ओर से ध्यान बंटाने वाले साधन के रूप में भी और जनता के बड़े हिस्सों की बदहाली से उपजे असंतोष को असली दुश्मन के खिलाफ लक्षित होने से रोकने वाले साधन के रूप में भी. बदहाली के वर्गीय आयाम उजागर न हों, इसके लिए ज़रूरी है कि जनता को दीगर आधारों पर ध्रुवीकृत किया जाए और उनके असंतोष को साम्प्रदायिक लक्ष्यों की ओर मोड़ा जाए. देशभक्ति, राष्ट्रीय गौरव, परम्परा और संस्कृति—ये सब वास्तविक मुद्दों पर होनेवाली लड़ाई को दूसरी तरह की लड़ाइयों से प्रतिस्थापित करनेवाले जुमले हैं, जिन्हें व्यवस्था के विचारधारात्मक उपकरणों ने जनता के एक हिस्से के लिए जुमला भर नहीं रहने दिया है और इन पदों के संकीर्ण पदार्थ गढ़ दिए हैं. इस तरह हिन्दुत्ववादियों के इस्तेमाल में आने वाली निर्मितियों की जड़ें इस व्यवस्था में गहरी हैं.
निश्चित रूप से इस परिदृश्य में एक लेखक संगठन के तौर पर हमारी ज़िम्मेदारी बड़ी है. लेखन एक निजी कार्य है, लेकिन संगठन के रूप में हम इन निजी रचनात्मक प्रयासों के उत्पाद को जनता तक ले जाने का काम भी करते हैं और जनता के बीच सत्ताधारियों द्वारा फैलाए जा रहे भ्रमों के ख़िलाफ़ अन्य वैचारिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी करते हैं. इस ज़िम्मेदारी को निभाने की दिशा में जलेस केंद्र के प्रयास 2015 में जिस स्तर के रहे, वैसे 2016-17 में नहीं रहे. संभवतः इसका कारण यह है कि 2015 में हमारे प्रयासों को लेखकों-संस्कृतिकर्मियों की स्वतःस्फूर्त सक्रियता का एक मज़बूत आधार मिला था जो कि बाद में वैसा नहीं रह गया.
हमने पिछली कार्यकारिणी बैठक (13.03.2016) में इस बात का ज़िक्र किया था कि जसम, प्रलेस, दलेस और साहित्य-संवाद के साथ मिलकर ‘आज़ाद वतन आज़ाद जुबां’ के नाम से हम एक शृंखला की शुरुआत करने जा रहे हैं. शुरुआत हुई और हमने ‘देशप्रेम के मायने’ (12 मार्च 2016) तथा ‘आम्बेडकर के सपनों का भारत’ (13 अप्रैल 2016) को विषय बनाकर दो बड़े आयोजन किये, लेकिन उसके बाद केंद्र के स्तर पर ऐसे संयुक्त कार्यक्रमों के सिलसिले में लंबा अंतराल आया. दुबारा एक बड़ी तैयारी लखनऊ में संयुक्त कार्यक्रम आयोजित करने को लेकर हुई. इस बार इंडियन राइटर्स एसोसिएशन, पीपुल्स साइंस मूवमेंट, इप्टा, जसम, प्रलेस आदि को साथ लेकर हमने तीन दिन का एक बड़ा सांस्कृतिक जमावड़ा करने की योजना बनाई. इसके लिए लखनऊ को चुनने का मक़सद उत्तरप्रदेश के चुनावों के मद्देनज़र मतदाताओं तक साम्प्रादायिक राजनीति के ख़िलाफ़ संस्कृतिकर्मियों का संदेश पहुंचाना था. बड़े पैमाने के आयोजन की सारी तैयारियों के बावजूद निर्धारित तिथि से दो हफ़्ते पहले लखनऊ के मेज़बानों ने हमें सूचित किया कि वे एक दिन का ही कार्यक्रम रखने का फ़ैसला ले चुके हैं, क्योंकि दिसम्बर के आख़िरी दिनों के मौसम को देखते हुए तीन दिन के कार्यक्रम का निर्वाह मुश्किल लग रहा है. हालांकि आयोजन-समिति में शामिल लखनऊ के हमारे साथी नलिन रंजन सिंह इस फ़ैसले से सहमत नहीं थे, पर उनकी अनुपस्थिति में लिए गए फ़ैसले को मानने के अलावा उनके पास भी कोई चारा न था. बहरहाल, 29 दिसम्बर 2016 को लखनऊ में ‘हस्तक्षेप’ के नाम से एक दिन का कार्यक्रम हुआ, जो सामान्य कार्यक्रमों के पैमाने पर एक बड़ा कार्यक्रम ही कहा जाएगा, अगरचे वह हमारी उम्मीद और पिछले दो महीनों की तैयारी के हिसाब से काफ़ी कमतर था. इसकी रिपोर्ट सभी अखबारों के स्थानीय संस्करणों में शाया हुई.
अपनी पहल पर होने वाले इन संयुक्त आयोजनों के अलावा हमने कई बिरादराना और हमख़याल संगठनों के आह्वान पर साझा कार्यक्रमों में बतौर आयोजक हिस्सेदारी की. इनमें मुख्य हैं : मई 2016 में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे जनेवि के विद्यार्थियों के समर्थन में जंतर-मंतर पर किया गया आयोजन, उन्हीं के समर्थन में जनेवि के परिसर में फ्रीडम स्क्वायर पर किया गया वृहत सांस्कृतिक कार्यक्रम, 20 जुलाई 2016 को श्री नरेन्द्र दाभोलकर की तीसरी बरसी के अवसर पर जंतर-मंतर पर उनकी हत्या की जांच को तेज़ करने की मांग को लेकर धरना और 9 नवम्बर को युद्धोन्माद के ख़िलाफ़ और शांति तथा लोकतंत्र के पक्ष में जंतर-मंतर पर एक बड़ा आयोजन.
जलेस केंद्र के स्वतंत्र कार्यक्रम के रूप में इस बीच हमारा सबसे महत्वपूर्ण आयोजन था, इलाहाबाद कार्यशाला (2-4 अक्टूबर 2016). ‘वर्ग, जाति और जेंडर’ पर केन्द्रित यह तीन-दिवसीय कार्यशाला हमारी पिछली बांदा कार्यशाला की तरह ही बजरंग बिहारी तिवारी और सुधीर सिंह के कुशल संयोजकत्व में हुई. भारत के कई हिस्सों से आये युवा लेखकों और शोधार्थियों ने इसमें भागीदारी की और जाते हुए कार्यशाला में मिली बौद्धिक ख़ुराक से लेकर ठहरने के इंतज़ाम और आत्मीय माहौल की भी मुक्त भाव से प्रशंसा की. इनमें से ज़्यादातर भागीदार अभी भी साथी सुधीर सिंह के मॉडरेशन में चलनेवाले ‘इलाहाबाद कार्यशाला’ के व्हाट्सएप्प समूह में जुड़े हुए हैं. साथी बजरंग की लिखी हुई इस कार्यशाला की विस्तृत रिपोर्ट ‘कथादेश’ में दो हिस्सों में प्रकाशित हुई. उसका थोड़ा संक्षिप्त रूप ‘लोकलहर’ में भी देखा जा सकता है. राष्ट्रीय अखबारों के इलाहाबाद संस्करण ने तीनों दिन इसकी ख़बर को जगह दी.
दिल्ली में स्थानीय स्तर पर दिवंगत साथी मुद्राराक्षस को याद करते हुए एक सभा हमने 2 जुलाई 2016 को आयोजित की. इसके अलावा हम समय-समय पर विभिन्न मुद्दों को लेकर प्रेस-विज्ञप्ति जारी करते रहे, जिनमें प्रो. आफ़ाक़ अहमद, मुद्राराक्षस, नीलाभ, सतीश जमाली, राजेंद्र साईंवाल और डॉ. धर्मवीर के निधन पर जारी बयानों के अलावा उर्दू लेखकों पर लादी गयी अपमानजनक शर्तों, मैसूर विश्वविद्यालय में प्रो. बी पी महेशगुरु के निलंबन, गिरिडीह कॉलेज में प्राचार्य, हमारे साथी डॉ. अली इमाम खान पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के हमले, हिन्दी अकादमी पुरस्कार में सरकारी हस्तक्षेप, हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में ‘द्रौपदी’ के मंचन पर विद्यार्थी परिषद् के हंगामे, इंदौर में इप्टा के सम्मलेन पर हिन्दुत्ववादियों के हमले, मथुरा के नास्तिक सम्मलेन के ख़िलाफ़ हिन्दुत्ववादियों के उपद्रव और उसे रद्द कराने की कोशिश, उदयपुर में फ़िल्म फ़ेस्टिवल ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के लिए हो चुकी बुकिंग को रद्द करने की घटना, एनडीटीवी का प्रसारण एक दिन के लिए प्रतिबंधित करने की घोषणा, जनेवि में विद्वत परिषद् के अवैध फ़ैसले पर शिक्षक संघ और छात्र संघ के संयुक्त आन्दोलन के आह्वान, रामजस कॉलेज में ‘कल्चर्स ऑफ़ प्रोटेस्ट’ के ख़िलाफ़ विद्यार्थी परिषद् के हिंसक उपद्रव और मंदाक्रांता सेन को दी गयी हिन्दुत्ववादियों की धमकियों इत्यादि पर हमारे बयान शामिल हैं.
हमारी केन्द्रीय पत्रिका ‘नया पथ’ के दो अंक इन महीनों में प्रकाशित हो पाए हैं. इनके बीच का अंतराल नौ महीने का रहा है. पिछ्ला अंक जुलाई 2016 में प्रकाशित हुआ था, ताज़ा अंक अभी-अभी छप कर आया है. जुलाई में प्रकाशित अंक में बांदा कार्यशाला के भाषणों को जगह दी गयी थी. ‘आम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद: पारस्परिकता के धरातल’ पर केन्द्रित कार्यशाला की महत्वपूर्ण प्रस्तुतियों को पाठकों तक ले जानेवाले उस अंक की बहुत मांग रही. अब ताज़ा अंक में इस्मत चुग़ताई पर विशेष सामग्री दी गयी है.
इस बीच बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की इकाइयों से हमारा संवाद कमोबेश बना रहा है. राज्य केंद्र से या सीधे ज़िलों से भी हमें गतिविधियों की ख़बरें मिलती रही है. हरियाणा की गतिविधियों के बारे से केंद्र के पास सूचनाएं बहुत कम हैं. हिमाचल प्रदेश से किसी सक्रियता की ख़बर नहीं है. यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि वहां जलेस की उपस्थिति लगभग नगण्य है. राजस्थान से गतिविधियों की कुछ सूचनाएं मिलती रहीं, लेकिन लम्बे अरसे से न हो पाने वाले राज्य सम्मलेन को जून-जुलाई 2016 में संपन्न करने की बात पिछली कार्यकारिणी में तय होकर भी क्रियान्वित नहीं हो पायी. नवम्बर माह में साथी राजेंद्र साईंवाल के आकस्मिक निधन से वहाँ का संकट और गहरा हो गया जिसे जल्द-से-जल्द एक मुकम्मल सांगठनिक ढांचा खड़ा करके दूर करने के लिए हमारे साथी राजीव गुप्त और युवा साथी संदीप मील कृतसंकल्प हैं. अभी-अभी 23 अप्रैल को जयपुर में हुई बैठक में जलेस उपमहासचिव की मौजूदगी में उन्होंने एक तदर्थ समिति का गठन किया है जो ज़िलों के सम्मलेन के लिए प्रयास करते हुए अगस्त के अंत में राज्य सम्मलेन करेगी. छत्तीसगढ़ में भी साथी नासिर अहमद सिकंदर की पहल पर जलेस इकाई के गठन के उद्देश्य से एक कमेटी बनाई गयी है. इसके लिए बैठक सितम्बर 2016 के आख़िरी हफ़्ते में हुई थी जिसमें केंद्र की ओर से साथी राजेश जोशी और रामप्रकाश त्रिपाठी उपस्थित थे. स्थापना सम्मलेन के बारे में अभी केंद्र के पास वहां से कोई सूचना नहीं है.
पिछले कार्यकारिणी बैठक में हमने निम्नांकित फ़ैसले लिए थे:
- वर्ष 2017 में हमारा नौवां राष्ट्रीय सम्मलेन होगा जिसके लिए झारखण्ड की इकाई ने आगे बढ़कर आतिथेय बनना स्वीकार किया.
- नौवें राष्ट्रीय सम्मलेन के खुले सत्रों को मुक्तिबोध जन्मशती वर्ष का ध्यान रखते हुए परिकल्पित किया जाएगा.
- केंद्र समेत जलेस की सभी राज्य इकाइयां 2016-17 में मुक्तिबोध पर केन्द्रित कार्यक्रम आयोजित करें.
- साथी बजरंग ने ‘वर्ग, जाति और जेंडर’ पर कार्यशाला का जो सुझाव भेजा है, उसे उपयुक्त समय और स्थान देखकर आयोजित किया जाए. महिला-लेखन से सम्बंधित कार्यशाला को लेकर पहले जो फ़ैसला लिया गया था, उसे क्रियान्वित किया जाए. उर्दू साहित्य पर भोपाल में और युवा लेखन पर हरियाणा में कार्यशाला करने के पुराने प्रस्ताव को क्रियान्वित करने का प्रयास हो.
- साथी हरियश राय को केन्द्रीय कार्यकारिणी में शामिल किया जाए.
इनमें से महिला-लेखन, उर्दू साहित्य और युवा लेखन से सम्बंधित कार्यशाला की दिशा में हम कुछ नहीं कर पाए हैं और अब लगता नहीं कि राष्ट्रीय सम्मलेन से पहले ऐसा कुछ करना हमारे लिए संभव होगा. मुक्तिबोध जन्मशती आयोजनों के लिए केंद्र की ओर से कोई पत्र राज्यों को भेजा नहीं जा सका है. यह चूक हमसे हुई, लेकिन कार्यकारिणी के हमारे साथियों ने यह सन्देश राज्यों को पहुंचाया था, इसीलिए कई जगहों से मुक्तिबोध पर हुए कार्यक्रम की ख़बर हम तक आई. हमने मुक्तिबोध पर एक परिसंवाद अभी-अभी 29 अप्रैल को आयोजित किया और राजेंद्र प्रसाद अकादमी से 12-13 नवम्बर को, मुक्तिबोध के जन्मदिन पर, एक बड़ा जन्मशती आयोजन रखने की बात हो चुकी है. बाक़ी फ़ैसलों पर हमने जो काम किया है, उनके बारे में पीछे बताया जा चुका है.
केन्द्रीय कार्यकारिणी और केन्द्रीय परिषद् की बैठक
30.04.2017
बैठक में निम्नांकित उपस्थित थे (हस्ताक्षर के क्रम से):
1-दूधनाथ सिंह 2- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह 3- चन्द्रकला पाण्डेय 4- रोहतास 5-कामेश्वर त्रिपाठी 6- बजरंग बिहारी 7- मनोज कुलकर्णी 8-हरियश राय 9-हरपाल 10-गोपाल प्रसाद 11-कुमार सत्येन्द्र 12-मृणाल 13-सुधीर सिंह 14- चंचल चौहान 15-इब्बार रब्बी 16- सत्येन्द्र कुमार 17- विनीताभ 18- अलखदेव प्रसाद ‘अचल’19-कृष्ण चन्द्र चौधरी 20- मंजीत राठी 21-शुभा 22- मनमोहन 23-कान्तिमोहन 24- बली सिंह 25- रेखा अवस्थी 26- हेना चक्रवर्ती 27- संजीव कुमार 28-राकेश तिवारी 29 – विशाल श्रीवास्तव 30-अनिल कुमार सिंह 31-रोहिताश्व 32-संदीप मील 33-देवेन्द्र चौबे 34-नलिन रंजन सिंह 35-ज़फ़र इक़बाल 36- शैलेन्द्र आस्थाना 37-संजीव कौशल 38-प्रेम तिवारी
बैठक में पिछली कार्यकारिणी बैठक के बाद दिवंगत हुए साथियों, संस्कृतिकर्मियों और जननायकों को श्रद्धांजलि दी गयी. जलेस के साथियों में से श्री जुबैर रजवी, प्रो. आफ़ाक़ अहमद, मुद्राराक्षस, अली बाक़र ज़ैदी, राजेंद्र साईंवाल, चन्द्र कुमार शर्मा ‘बादल’ इस बीच नहीं रहे. इनके अलावा फ़िदेल कास्त्रो, महाश्वेता देवी, गुरदयाल सिंह, सतीश जमाली, नीलाभ, हृदयेश, अनुपम मिश्र, डॉ. धर्मवीर, लक्ष्मण भांड और ओम पुरी समेत अनेक लेखक-संस्कृतिकर्मी और विचारक दिवंगत हुए. इन सबको श्रद्धासुमन अर्पित करने के साथ बैठक की शुरुआत हुई.
एजेंडा के विभिन्न बिन्दुओं पर लम्बी बहस के बाद निम्नांकित फ़ैसले लिए गए :
- जलेस का राष्ट्रीय सम्मलेन 7-8 अक्टूबर 2017 को धनबाद (झारखण्ड) में होगा. धनबाद शहर या आसपास स्थान निश्चित करने का अंतिम फ़ैसला झारखण्ड राज्य इकाई लेगी.
- सम्मलेन पर होनेवाले खर्च के लिए सभी इकाइयां फण्ड जुटाएंगी. राज्यवार कोटा कार्यकारी मंडल तय करेगा और कूपन व अपील तथा स्मारिका के विज्ञापन के लिए टेरिफ कार्ड का प्रारूप तय करेगा.
- सम्मलेन के खुले सत्र का विषय हमारे समय की चुनौतियों पर केन्द्रित होगा. संस्कृति को लेकर जिस तरह का हमला है, उसे विषय में सूत्रबद्ध करने का प्रयास करें. ‘संस्कृति के सवाल और हमारा समय’. ‘संस्कृति का रणक्षेत्र और हमारा समय’ – ऐसा कोई विषय तय कर सकते हैं. इसके बारे में अंतिम रूप से कार्यकारी मंडल की बैठक फ़ैसला लेगी.
- उदघाटन सत्र के लिए निम्न में से किन्हीं एक को बुलाया जाए:
- गिरीश कर्नाड
- श्याम बेनेगल
- आनंद पटवर्धन
- रोमिला थापर
- विशिष्ट वक्ता के रूप में इनमें से दो-तीन:
- आनंद तेलतुम्बडे
- तीस्ता सीतलवाड़
- नूर ज़हीर
- उमा चक्रवर्ती
- राणा अयूब
- सुहैल हाशमी
- निर्मला पुतुल
- महादेव टोप्पो
- गोपाल गुरु
- अनुज लुगुन
- सुभाष गाताडे
- उत्तर प्रदेश में साथियों के बीच चल रहे विवाद को राज्य कमेटी सुलझाए.
- साथी राजेंद्र साईंवाल के न रहने के कारण अब साथी संदीप मील को राजस्थान से केन्द्रीय कार्यकारिणी में शामिल किया जाए.