स्मृति-शेष : दूधनाथ सिंह

नयी दिल्ली : 17-1 :  गांधी शांति प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली के सभागार में 11 जनवरी को दिवंगत हुए, हिन्दी के अतुलनीय कथाकार-कवि-आलोचक दूधनाथ सिंह की याद में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के संयुक्त आयोजन के रूप में एक श्रद्धांजलि सभा हुई. 5:30 बजे शाम से तीन घंटे तक चली इस सभा में शहर के साहित्यकार, बुद्धिजीवी, राजनीतिक कार्यकर्ता और विद्यार्थी सौ से ऊपर की संख्या में मौजूद थे.

संचालन करते हुए जनवादी लेखक संघ के संजीव कुमार ने जलेस अध्यक्ष दूधनाथ जी के निधन को संगठन के लिए और हिन्दी साहित्य के लिए एक बड़ी क्षति बताया. उन्होंने कहा कि दूधनाथ जी ऐसे ईमानदार व्यक्ति थे जिनकी अपनी ईमानदारी के प्रदर्शन में कोई दिलचस्पी नहीं थी. अपना एक व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए उन्होंने बताया कि एक आयोजन में, जहां संस्कृति मंत्रालय के वित्तपोषण को लेकर साहित्यिक जगत में सवाल उठ रहे थे, उन्होंने बोलने के बाद मानदेय तो नहीं ही लिया, गेस्ट हाउस के बिल का भी खुद ही भुगतान किया, यह बात शायद ही किसी को पता हो.

वक्ताओं में सबसे पहले दूधनाथ जी के छोटे बेटे, दयाल सिंह कॉलेज के प्राध्यापक अंशुमन सिंह ने उनकी साल भर पुरानी बीमारी के बारे में विस्तार से बताया. जन संस्कृति मंच के ओर से श्रद्धांजलि देते हुए अशोक भौमिक ने कहा व्यक्तिगत रूप से दूधनाथ जी के साथ बिताये दिन उन्हें बहुत याद आते हैं. वे बहुत गंभीर रचनाकार थे और कुछ भी लिखने के लिए बड़ी तैयारी करते थे. इस सिलसिले में उन्होंने ‘यमगाथा’ की तैयारी का उदाहरण दिया. बाद की पीढी के लोगों को उनसे यह बात सीखनी चाहिए. संगठनों के भेदभाव को वे कभी तवज़्ज़ो नहीं देते थे और साथ मिलकर काम करने के उदाहरण के रूप में उन्हें याद किया जा सकता है.

प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि दूधनाथ जी के साथ पिछले 15 वर्षों में उनके सम्बन्ध अधिक घनिष्ठ हुए. वे अपनी बात को साहस के साथ बेलाग कहना जानते थे, बिना इसकी परवाह किये कि कौन प्रसन्न होगा और कौन नाराज़.

प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से श्रद्धांजलि देते हुए अली जावेद ने कहा कि वे आज के हालात से बहुत परेशान नज़र आते थे और सभी संगठनों के मिलकर काम करने के हिमायती थे. उर्दू की पृष्ठभूमि के कारण उनमें एक नफ़ासत थी. वे सिर्फ हिन्दी के लेखक नहीं हैं, ग़ालिब और फ़िराक की तरह भारतीय साहित्य का बड़ा नाम हैं. अली जावेद ने पाकिस्तान प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन और करांची यूनिवर्सिटी द्वारा भेजे गए शोक-संदेशों को भी पढ़कर सुनाया.

जनवादी लेखक संघ की ओर से श्रद्धांजलि देते हुए मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने कहा कि वे संगठन के निष्क्रिय अध्यक्ष नहीं थे, बराबर फोन करके सांगठनिक कामकाज के बारे में ख़बर लेते रहते थे. उन्होंने बाबरी मस्जिद ध्वंस पर लिखे अप्रतिम उपन्यास ‘आख़िरी कलाम’ और ‘रीछ’, ‘रक्तपात’, ‘हुडार’ जैसे कहानियों को याद किया. उन्होंने कहा कि दूधनाथ सिंह की प्रतिरोध की संस्कृति के प्रतिनिधि थे.

सीआईटीयू की तरफ से बोलते हुए सिद्धेश्वर शुक्ला ने उन्हें स्पष्टवक्ता बताया और कहा कि लेखक के रूप में उनकी चिंताएं बहुत बड़ी थीं. अपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ज़माने को याद करते हुए उन्होंने कहा कि दूधनाथ जी वहाँ के छात्रावासों में सबसे लोकप्रिय नाम थे.

प्रो. नित्यानंद तिवारी ने बताया कि जब वे बी.ए, के विद्यार्थी थे, तब दूधनाथ जी एम.ए. में थे. वे बहुत प्रतिभाशाली लेखक थे और कहानी कहने की उनकी कला अद्भुत है. वे दुनियावी अर्थ में चतुर और कुशल नहीं थे. झूठ खूब बोलते थे, पर किसी का नुकसान करने के लिए नहीं. एक बार जब उनसे नित्यानंद जी ने पूछा कि तुम इतना झूठ क्यों बोलते हो, तो वे बोले, ‘पहले तो ज़रूरत पड़ने पर बोलता था, फिर आदत सी हो गयी.’ वे समय के चलन से बाहर थे और अपने दौर के नैतिक मानदंडों को महत्त्व नहीं देते थे. ‘आख़िरी कलाम’ उपन्यास के बारे में उन्होंने कहा कि इस पर जितनी बात होनी चाहिए थी, उतनी हुई नहीं. उसका पहला वाक्य ही—‘किताबें शक पैदा करती हैं’—कितना बड़ा वाक्य है!

शेखर जोशी ने साठ के दशक के इलाहाबाद को याद करते हुए कहा कि उस दौर में दूधनाथ जी परिमल में थे. शीतयुद्ध का ज़माना था और परिमल के साथ प्रगतिशीलों की ठनी रहती थी. धीरे-ढेरी आपातकाल के बाद हम लोग निकट आये. जनवादी लेखक संघ में आने के बाद दूधनाथ जी के लेखन में अंतर आया. ‘आख़िरी कलाम’ जैसा उपन्यास इसका प्रमाण है. उनकी बौद्धिक क्षमता बहुत आकर्षित करती थी और विश्वविद्यालय में वे बहुत लोकप्रिय शिक्षक थे.

दूधनाथ जी की जीवनसंगिनी की छोटी बहन और हिन्दी की अच्छी कवयित्री शोभा सिंह ने कहा कि वे हमेशा नए रचनाकारों को प्रोत्साहित करते थे. दूधनाथ जी के विद्यार्थी रहे रविकांत और विनोद तिवारी ने उनकी संगत को याद किया. आशुतोष कुमार ने कहा कि वे साम्प्रदायिकता के बारे में सिर्फ चिंता व्यक्त नहीं करते थे बल्कि उसकी गहरी जड़ों को तलाशने की उन्होंने कोशिश की. ‘आख़िरी कलाम’ को इसी तरह से पढ़े जाने की ज़रूरत है. उत्तर भारतीय उच्च जातीय पुरुष के सामन्ती चरित्र की उनमें अद्भुत पकड़ है. वे बड़े अर्थ में आधुनिक दिमाग़ के रचनाकार थे. भाषा सिंह में उन्हें एक बड़े साहित्यकार के साथ-साथ के पारिवारिक मनुष्य के रूप में याद किया. उनकी जिंदादिली और नए लेखन पर उनकी पैनी निगाह के बारे में उन्होंने विस्तार से चर्चा की. दूधनाथ जी की पुत्रवधू और दयाल सिघ कॉलेज की प्राध्यापिका शाइस्ता ने कहा कि किसी आदमी की बहू से पूछना चाहिए कि वह कितने आधुनिक थे. दूधनाथ जी अपने परिवार के भीतर भी बहुत लोकतांत्रिक थे और हर किसी को बराबरी का दर्जा देते थे. रामशरण जोशी ने वर्धा में उनके साथ गुज़ारे समय को याद किया और इब्बार रब्बी ने ‘आख़िरी कलाम’ और ‘यमगाथा’ को भारतीय साहित्य की ऐसी उपलब्धि बताया जिसका ठीक-ठीक मूल्यांकन होना अभी बाक़ी है.

दूधनाथ जी की याद में एक मिनट का मौन रखने के साथ सभा 8:20 पर समाप्त हुई. गंगेश गुंजन, रेखा अवस्थी, चंचल चौहान, जवरीमल्ल पारख, मनमोहन, मदन कश्यप, हरिमोहन शर्मा, कृष्णदत्त शर्मा, सुधीर चौहान, भगवती प्रसाद शर्मा, बली सिंह, बजरंग बिहारी, राकेश तिवारी, संजीव कौशल, संजय जोशी, प्रेम तिवारी, रामनरेश राम, अतुल सिंह समेत अनेक महत्वपूर्ण लेखकों-बुद्धिजीवियों के बोलने की बारी आ ही नहीं पायी.

 


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